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________________ प्रस्तावना ५९ 'श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलांछनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥' इसी ग्रन्थ का मंगलाचरण है। इस पर अनन्तवीर्य ने प्रमाणसंग्रहभाष्य अथवा प्रमाणसंग्रहालंकार नामक टीका लिखी थी जो अनुपलब्ध है। . [प्रकाशन--- अकलंकग्रन्थत्रय में - सं. पं. महेन्द्रकुमार, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, १९३९, बम्बई ] अकलंक के ग्रन्थों में प्रमेय विषयों की चर्चा तो महत्त्वपूर्ण है ही - सर्वज्ञ, ईश्वर, क्षणिकवाद, जीवस्त्ररूप आदि की चर्चा उन्हों ने पर्याप्त रूप से की है। किन्तु प्रमाणों के वर्णन - वर्गीकरण का उन का कार्य अधिक मौलिक और महत्त्व का है। प्रत्यक्ष प्रमाण में इन्द्रियप्रत्यक्ष का व्यवहारतः समावेश करने की कुछ आगम ग्रन्थों की पद्धति उन्हों ने अपनाई । तथा परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान एवं आगम ये पांच भेद स्थिर किये । बाद के जैन तार्किकों ने उन की इस व्यवस्था का सर्वसम्मति से ( न्यायावतार की टीकाएं छोड कर ) समर्थन किया है । तथा जैन न्याय को अकलंकन्याय यह विशेषण दिया है । . २१. हरिभद्र-आगम, योग, न्याय, अध्यात्म, स्तोत्र, मुनिचर्या,उपासकाचार, कथा आदि विविध विषयों पर विपुल तथा श्रेष्ठ साहित्य की रचना हरिभद्र ने की है। कथाओं के अनुसार वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे तथा या किनी महत्तरा नामक साध्वी के उपदेश से जैन संघ में दीक्षित हुए थे। उन के दीक्षागुरु जिनभट थे तथा विद्यागुरु जिनदत्त थे। उन के हंस तथा परमहंस नामक शिष्यों को बौद्धों ने मार डाला था - इस से क्षुब्ध होकर पहले तो हरिभद्र ने बौद्ध प्रतिपक्षियों का वध कराने का निश्चय किया किन्तु शान्त होने पर उन्हें अपनी भूल ज्ञात हुई तथा ग्रन्थरचना द्वारा प्रतिपक्षियों पर विजय पाना उन्होंने उचित समझा। उन के बहुत से ग्रन्थों के अन्त में विरह यह raamrearram...www.rrm १) कथावली, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रभावकचरित, प्रबन्धकोष आदि में हरिभद्र की कथा आती है । २) कुछ कथाओं में ये नाम जिनभद्र तथा वीरभद्र ऐसे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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