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________________ ४६ विश्वतत्त्वप्रकाशः होना) यह उस का लक्षण बतलाया है । अन्त में आगम का स्याद्वाद पर आश्रित स्वरूप स्पष्ट किया है । न्यायावतार पर हरिभद्र ने टीका लिखी थी, उस का एक श्लोक ( क्र. ४ ) उन्हों ने षड्दर्शनसमुच्चय में समाविष्ट किया है ( क्र. ५६ ) अतः न्यायावतार की रचना आठवीं सदी से पहले की है। उस में आगम का लक्षण रत्नकरण्ड से उद्धृत किया है तथा हेतु का अन्यथानुपपन्नत्व लक्षण बतलाया है जो पात्रकेसरीकृत है अतः न्यायावतार की रचना सातवीं सदी से पहले की नही हो सकती । १ न्यायावतार पर हरिभद्र, सिद्धर्षि तथा देवभद्र की टीकाएं हैं तथा इस के प्रथम श्लोक को आधार मान कर जिनेश्वर व शान्तिसूरि ने वार्तिक ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों का विवरण आगे यथास्थान दिया है । [प्रकाशन - १ मूल व इंग्लिश स्पष्टीकरण- सं. डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूषण, कलकत्ता १९०४; २ मूल- जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर, १९०९, ३ सिद्धर्षि व देवभद्र की टीकाएं - हेमचन्द्राचार्य सभा, पाटन १९१७; ४ टीकाएं व टिप्पण (इंग्लिश ) सं. डॉ. वैद्य, श्वेताम्बर जैन कॉन्फरन्स, बम्बई १९२८ ५ अनुवाद पं. सुखलाल, जैन साहित्य संशोधक खंड ३ भाग १ ६ न्यायावतारवार्तिकवृत्ति के परिशिष्ट में - सं. दलसुख मालवणिया, सिंधी ग्रंथमाला, बम्बई १९४९, ७ टीकाएं व हिन्दी अनुवाद - विजयमूर्ति शास्त्री, रायचंद्र शास्त्रमाला, बम्बई ] १) प्रत्यक्ष को अभ्रान्त और अनुमान को भ्रान्त मानने के जिस मत की न्यायावतार आलोचना है वह बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति ( सातवीं सदी - मध्य ) का है अतः न्याया• वतार सातवी सदी के बाद का है यह तर्क पहले दिया गया है । किन्नु अब ज्ञात हुआ है कि यह मत धर्मकीर्ति से पहले भी बौद्ध विद्वानों में प्रचलित था-तीसरी-चौथी सदी में भी वह व्यक्त किया जा चुका था । अतः यह कारण अब समर्थनीय नही रहा [ विवरण के लिए पं. दलसुख मालवणिया की न्यायावतारवार्तिकवृत्ति की प्रस्तावना देखिये ] | किन्तु समन्तभद्र और पात्रकेसरी के बाद न्यायावतार की रचना हुई है इस तर्क का समुचित उत्तर नही दिया जा सकता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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