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प्रस्तावना
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है जो सन्मतिसूत्र में प्रतिपादित मत से भिन्न है । इस तरह की मतभिन्नता के कारण ये सब द्वात्रिंशिकाएं एक ही सिद्धसेन आचार्य द्वारा लिखी गई हों यह सम्भव प्रतीत नहीं होता | तथापि तार्किक मतप्रतिपादन की दृष्टि से ये द्वात्रिं शिकाएं महत्त्वपूर्ण हैं इस में सन्देह नही । इन में से कुछ की रचना पूज्यपाद के पहले हो चुकी थी यह भी स्पष्ट है क्यों कि पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि (७-१३ ) में तीसरी द्वात्रिंशिका का एक पद्यांश उद्धृत किया है ।
[प्रकाशन—जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर १९०९; वेदवाद द्वात्रिंशिका पं. सुखलालकृत हिंदी विवेचन-प्रेमीअभिनन्दन ग्रंथ पृ.३८४ प्रथम द्वात्रिंशिका- अनेकान्त वर्ष ९ पृ ४१५; दृष्टिप्रबोध द्वात्रिंशिकाअनेकान्त वर्ष १० पृ. २०० ]
न्यायावतार—यह बत्तीस श्लोकों की छोटीसी कृति है (और इसीलिए कभी कभी द्वात्रिीशिकाओं में इस की भी गणना की जाती है)। तथापि उपलब्ध प्रमाणशास्त्र विषयक रचनाओं में यह पहली है अतः बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस में प्रमाण के दो भेद - प्रत्यक्ष और परोक्ष - मान कर परोक्ष में अनुमान और आगम इन दो का अन्तर्भाव किया है। प्रत्यक्ष और अनुमान इन के स्वार्थ (अपने लिए) और परार्थ ( दूसरों के लिए ) ऐसे दो दो भेद किये हैं। कुछ बौद्ध दार्शनिक प्रत्यक्ष को अभ्रान्त और अनुमान को भ्रान्त मानते थे तथा कुछ विद्वान प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों को भ्रान्त मानते थे - आचार्य ने इन दोनों को अनुचित बतलाते हुए कहा है कि ज्ञान को प्रमाण भी मानना और भ्रान्त भी मानना परस्परविरुद्ध है, जो प्रमाण है वह भ्रान्त नही हो सकता। अनुमान का प्रमुख अंग हेतु है, उस के प्रकारों का वर्णन कर अन्यथानुपपन्नत्व ( दूसरे किसी प्रकार से उपपत्ति न
१) हरिभद्र तथा मलयगिरि आचार्यों ने भी युगपत्वाद के पुरस्कर्ता एक सिद्धसेन का उल्लेख किया है, ये सिद्धसेन ही प्रस्तुत द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हो सकते हैं । ( अनेकान्त ९ पृ. ४३४)। २) कथाओं में सिद्धसेनकृत द्वात्रिंशिका के श्लोक दिये हैं (प्रशान्तं दर्शनं यस्य इत्यादि,अथवा प्रकाशितं त्वयैकेन इत्यादि) वे इन द्वात्रिंशिकाओं में नहीं पाये जाते ।
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