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________________ प्रस्तावना प्रकार क्रमशः उपयोग माना है। सिद्धसेन ने इन दोनों पक्षों को अनुचित बता कर यह प्रतिपादन किया है कि केवलज्ञानी के दर्शन व ज्ञान में कोई भेद ही नही है अतः उन के प्रतिक्षण या क्रमशः होने का प्रश्न ही नही उठता। वस्तु के अस्तित्वमात्र के आभास को दर्शन कहते हैं तथा विशिष्ट रूपसे आभास को ज्ञान कहते हैं । केवली के ज्ञान में ये दो अवस्थाएं नहीं होतीं अतः उन का ज्ञान व दर्शन अभिन्न है यह आचार्य का मन्तव्य है। यह उपयोग-अभेदवाद दोनों परम्पराओं में बिलकुल नया था अतः जिनभद्र आदि परम्पराभिमानी आचार्यों ने सिद्धसेन को काफी आलोचना की है। सन्मति के तीसरे काण्ड में द्रव्य, गुण तथा पर्याय का सम्बन्ध स्पष्ट किया है। द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक के समान गुणार्थिक नय का उपदेश क्यों नही है इस के उत्तर में आचार्य ने गुण और पर्याय का दृढ सम्बन्ध स्पष्ट किया है। द्रव्य में उत्पत्ति, विनाश व स्थिरता की प्रक्रिया भी बतलाई है। इस काण्ड के अन्त में आचार्य ने भावपूर्ण शब्दों में नयवाद का महत्व बतलाया है तथा केवल आगम कण्ठस्थ करना, तपश्चर्या में मग्न रहना, बहुतसे शिष्यों को दीक्षा देना या कीर्ति प्राप्त करना पर्याप्त नही है यह चेतावनी भी साधुसंघ को दी है। सन्मति पर मल्लवादी तथा सुमतिदेव की टीकाएं थीं वे अनुपलब्ध हैं । उपलब्ध टीका अभयदेव की है। इन तीनों का विवरण आगे यथा स्थान दिया है । जिनदास महत्तर की निशीथचूर्णि में दर्शन प्रभावक शास्त्र के रूप में सन्मति का उल्लेख है तथा जिनभद्र गणी ने विशेषावश्यकभाष्य व विशेषणवती में सन्मति के उपयोग-अभेदवाद का खण्डन किया है - इन दोनों का समय क्रमशः सन ६७६ तथा ६०९ है। अत एव सन्मति की रचना छठी सदी के मध्य में या उस से कुछ पहले मानी जा सकती है। १) दंसणणाणप्पभावगाणि सत्थाणि सिद्धि विणिच्छ्यसम्मतिमादि गेण्हतो असंथरमाणे जं अकप्पियं पडिसेवति चयणाते तत्थ सो सुध्दो ( उद्देशक १ )। २) विशेषावश्यकभाष्य गा. ३०८९ से. विशेषणवती गा० १८४ सें। ३) उपयोगक्रमवाद के पहले पुरस्कर्ता भद्रबाहु (द्वितीय) (नियुक्तिकार) हैं तथा उन का समय छठी सदी का प्रारम्भ है यह मान कर पं. मुख्तार ने सन्मति की रचना उन के बाद मानी है (अनेकान्त व. ९ पृ. ४४३-५) किन्तु क्रमवाद के वे ही पहले पुरस्कर्ता थे यह कथन ठीक प्रतीत नही होता। सिद्धसेन विषयक कथाओं में सन्मति का कोई उल्लेख नही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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