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-पृ. २९३]
टिप्पण
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पृष्ठ २९३--परमाणुओं के सम्बन्ध के विषय में इन आपत्तियों का विचार अकलंक ने किया है (न्यायविनिश्चय श्लो. ८६.९०)। इस सम्बन्ध में बौद्धों के विचार वेदान्तियों से मिलते-जुलते हैं (ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य २।२।१७)।
पृष्ठ २९९–प्रत्यक्ष निर्विकल्प ही प्रमाण होता है इस का खण्डन अकलंक ने विस्तार से किया है (न्यायविनिश्चय श्लो. १५०-५७)।
पृष्ट ३०१-यत्रैव जनयेदेनाम् इत्यादि श्लोक दिग्नाग का है ऐसा प्रभाचन्द्र का कथन है (न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ६६)। अनन्तवीर्य ने इसे धर्मोत्तर की उक्ति कहा है ( सिद्धिविनिश्चय टीका पृ. ९१ ).
पृष्ट ३०२-यहां लेखक ने निर्वाणमार्ग के आठ अंगों का जो विवरण दिया है वह मूल बौद्ध ग्रन्थो से भिन्न है। सम्भवतः किसी उत्तरकालीन संस्कृत पुस्तक से यह लिया गया है। मूल ग्रन्थों में सम्यक् दृष्टि, सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् संकल्प, सम्यक् स्मृति, सम्यक् व्यायाम और सम्यक् समाधि ये आठ अंग कहे गये हैं। यहां लेखक ने सम्यक दृष्टि को सम्यक्त्व कहा है। सम्यक् वाचा को संज्ञा कहा है। संज्ञी का जो कथन लेखक ने किया है वह मौलिक विवरण से असम्बद्ध है। कर्म के स्थान पर वाक् तथा काय के कर्मों को एकत्र कर दिया है। अन्तायाम ऐसा शब्द प्राणायामादि के अर्थ में लेखक ने दिया है । मूल में कर्मान्त तथा व्यायाम ऐसे दो शब्द हैं तथा व्यायाम का तात्पर्य योग्य विचारों को बढाना तथा अयोग्य विचारों को हटाना यह है । आजीव का तात्पर्य मूल में आजीविका के उचित साधन यह है | समाधि में ध्यान के विभिन्न प्रकारों का अन्तर्भाव होता है।
पृष्ठ ३०३—उभे सत्ये समाश्रित्य के स्थान पर मूल माध्यमिक कारिका में द्वे सत्ये समुपाश्रित्य ऐसा पाठ है। निर्वाणेऽपि परिप्राप्ते इस श्लोक का उत्तरार्ध ही प्रमाणवार्तिक में मिलता है।
उपसंहार-क्षीणेऽनुग्रहकारिता आदि पद्य कातन्त्ररूपमाला के अन्त में भी लेखक ने दिया है।
१) अष्टांग मार्ग के विवरण तथा उस की जैन परम्परा के महानतों से तुलना के लिए स्व. धर्मानन्द कोसम्बी लिखित 'भारतीय संस्कृति और अहिंसा' ग्रन्थ का दूसरा प्रकरण ' श्रमण संस्कृति' उपयुक्त है।
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