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- पृ. १३७]
टिप्पण
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भ्रान्त हूँ तो मीमांसक का कथन है कि सभी प्रत्यय अभ्रान्त हैं, दो ज्ञानों के अन्तर को न समझना यही भ्रान्ति का स्वरूप है । प्रत्यक्ष में सींप को देखने से ' यह कुछ है ' यह ज्ञान होता है, इस का पहले देखी हुई चांदी के स्मरणरूप ज्ञान से मिश्रण हो जाता है और ' यह चांदी है' ऐसा प्रतीत होता है । अतः यहां प्रत्यक्ष और स्मरण में भेद प्रतीत न होना यही भ्रम का स्वरूप है । प्रभाकर ने बृहती टीका मे इस स्मृतिप्रमोषवाद को प्रस्तुत किया है । भ्रम के एक प्रकार का यह स्पष्टीकरण आधुनिक मनोवैज्ञानिक मान्यताओं के अनुकूल है । यद्यपि इस से सभी प्रकार के भ्रमों का स्पष्टीकरण नही होता |
पृष्ठ १२६ - - सभी प्रत्यय यथार्थ हैं यह कथन प्रत्यक्षबाधित है इस का निर्देश वाचस्पति ने किया है । २
पृष्ठ १२९ - - यह चांदी है ऐसे ज्ञान से ही उस विषय में प्रवृत्ति होती हैं अतः यह ज्ञान अयथार्थ ही है इसका निर्देश भी वाचस्पति ने किया है । ३ पृष्ठ १३४ -- मृगजल आदि भ्रम नही है - वे अतिशीघ्र नष्ट होनेवाले पदार्थ हैं यह सांख्यों का मत तथा उस का निराकरण प्रभाचन्द्र ने भी प्रस्तुत किया है । ४
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पृष्ठ १३७ - - वेदान्त दर्शन के अनुसार जगत् में पूर्णतः सत् केवल ब्रह्म है । किन्तु वे जगत् को पूर्णतः असत् नही मानते । यदि जगत् असत् होता तो उस की प्रतीति ही नही होती । अतः जगत् सत् और असत् दोनों से भिन्न है - ऐसा उन का मन्तव्य है । ५
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प्रत्यक्ष बाधकप्रत्ययात्
१) पृष्ठ ५५ शुक्तिकायां रजतज्ञानं स्मरामि इति प्रमोषात् स्मृतिज्ञानमुक्तं युक्तं रजतादिषु । शालिकनाथकृत प्रकरणपंचिका पृ. ३४ - ततो भिन्ने अबुद्ध्वा तु स्मरणग्रहणे इमे । समानेनैव रूपेण केवलं मन्यते जनः ॥ २) न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका पृ. ९०, नेदं रजतमिति च अपहृत विषयं प्रत्ययत्वेन विभ्रमाणां यथार्थत्वानुमानम् । ३) उपर्युक्त पृ. ९०, तत् सिद्धमेतत्र जतादिविज्ञानं पुरोवर्तिवस्तुविषयं रजतार्थिनः तत्र नियमेन प्रवर्तकत्वात् । ४) न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ६१, न हि विद्युदादिवत् उदकादेरपि आशुभावी निरन्वयो विनाशः क्वचिदुपलभ्यते ५) ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य २।१।२७, अविद्याकल्पितेन च नामरूपलक्षणेन रूपभेदेन व्याकृताव्याकृतात्मकेन तत्त्वान्यत्वाभ्यामनिर्वचनीयेन ब्रह्म परिणामादिसर्वव्यवहारास्पदत्वं प्रतिपद्यते ।
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