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________________ ३३२ विश्वतत्त्वप्रकाशः [पृ. ११४ स्वप्न आदि के समान सभी प्रत्यय निराधार हैं यह तर्क नागार्जुन' तथा प्रज्ञाकर आदि ने दिया है। एक ज्ञान की भ्रान्ति के कारण सभी ज्ञान भ्रान्त कहना ठीक नहो-यह इस का उत्तर अकलंक ने प्रस्तुत किया है । पृष्ठ ११५-यहां तर्क की जो परिभाषा दी है वह न्यायदर्शन के अनुसार है । इसे पृ. २४७ पर पुनः उद्धृत किया है । जैन परिभाषा में तर्क शब्द का प्रयोग परोक्ष प्रमाण के एक प्रकार के लिए होता है तथा उस का स्वरूप है व्याप्ति का ज्ञान। पृष्ठ ११८--जगत के सब पदार्थों के ज्ञान भ्रममूलक हैं अतः अनुमान प्रमाण भी प्रान्त है ऐसा बौद्ध मानते हैं। अनुमान को वे सिर्फ व्यवहार से ही प्रमाण कहते हैं । सिद्धसेन ने न्यायावतार में इस की आलोचना करते हुए कहा है कि प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों समानरूप से प्रमाण हैं। कोई भी ज्ञान एक ही समय प्रमाण भी हो और भ्रान्त भी यह संभव नहीं। पृष्ठ १२०-आत्मख्याति का पर्यायनाम विज्ञानवाद अथवा विज्ञानाद्वैतवाद है। समस्त बाह्य पदार्थ ज्ञान के रूपान्तर हैं-ज्ञान से भिन्न उन का अस्तित्व नही ऐसे इस मत का प्रतिपादन धर्मकीर्ति आदि ने किया है। पृष्ठ १२१--बाह्य वस्तु के निषय में ' में हूं' ऐसी ( अहमहमिका ) प्रवृत्ति नही होती, 'यह है' ऐसी ( इदंता) प्रवृत्ति होती है, अतः ज्ञान और बाह्य वस्तु में भेद सिद्ध होता है । इस का वर्णन प्रभाचन्द्र तथा जयन्तभट्ट आदि ने किया है। पृष्ठ १२४-शून्यवादी तथा विज्ञानवादी बौद्धों के ठीक उलटा मत प्राभाकर मीमांसकों ने प्रस्तुत किया है । यदि बौद्धों के मत से सभी प्रत्यय १) यथा माया यथा स्वप्नो गन्धर्वगगरं यथा । तथा भङ्गस्तथोत्पादस्तथा व्यय उदाहृतः॥ २) सर्वे प्रत्ययाः अनालम्बनाः प्रत्ययत्वात् (प्रमाणवार्तिकालंकार पृ. २२)। ३) न्यायविनिश्चय श्लो. ४८ विप्लुताक्षा यथा बुद्धिर्वितथप्रतिभासिनी । तथा सर्वत्र कि नेति जडाः सम्प्रतिपेदिरे॥ इत्यादि। ४) न्यायविनिश्चय श्लो. ३२९ स तर्कपरिनिष्ठितः। अविनाभावसम्बन्धः साकल्ये नावधार्यते ॥ ५) भ्रान्तं प्रमाणमित्येतत् विरुद्धं वचनं यतः ॥ ६) कस्यचित् किंचिदेवान्तर्वास • नायाः प्रबोधकम् । ततो धियां विनियमो न बाह्यार्थव्यपेक्षया ॥ प्रमाणवार्तिक २-३३६ ७) न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ६२ अहं रजतमिति स्वात्मनिष्टतयैव संवित्तिः स्यात् न तु इदं 'रजतमिति बहिनिष्टतया । इस के समान ही न्यायमञ्जरी पृ. १७८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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