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________________ -पृ. ४२] टिप्पण ३१९ द्वारा ही होता है यह उनका मत है। यहां उद्धृत श्लोक में धर्म का अर्थ धर्म को साक्षात् जाननेवाला यह समझना चाहिए । इस विषय में बौद्धों का मत मीमांसकों से ठीक उलटा है। उन के मत से धर्म का साक्षात् ज्ञान ही आप्त (बुद्ध) का विशेष है-बाकी सर्व पदार्थ वे जानते हैं या नही यह देखना व्यर्थ है । जैन मत में जो सर्वज्ञ माने हैं वे धर्म-अधर्म को भी साक्षात् जानते हैं और बाकी सब पदार्थों को भी। यहां अदृष्ट (पुण्य-पाप) को प्रत्यक्ष का विषय सिद्ध करने के लिए जो यह कहा है कि अदृष्ट अनुमान आदि प्रमाणों से ज्ञात नहीं होता-यह प्रतिवादी (मीमांसक) के मतानुसार समझना चाहिए । वैसे ग्रन्थकर्ता ने पहले अनुमान से अदृष्ट का समर्थन किया ही है (पृ. २२)। पृ. ३९--आगम की प्रमाणता आगमप्रवर्तक पर अवलंबित है यह तथ्य यहां स्पष्ट किया है । इसी लिए बौद्ध मत में आगम को स्वतन्त्र प्रमाण नही माना है, यद्यपि बुद्ध के वचनों को वे प्रमाणभूत मानते ही हैं। जैन मत के अनुसार भी आगम स्वतः प्रमाण नही हैं- सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट होने के कारण प्रमाण है। परि. १९--सर्वज्ञ के अस्तित्व में कोई बाधक प्रमाण नही है यह अनुमान पहले उद्धृत किया है (पृ. ५-६) और उस का विवरण भी पहले आ चुका है । (पृ. २५-३०) पृष्ठ ४१ --जैन प्रमाणशास्त्र में असिद्ध हेत्वाभास के दो ही प्रकार माने हैं इस का निर्देश पहले परि. १५ के टिप्पण में किया है। प्रभाचन्द्र ने इस की विस्तार से चर्चा की है। परि. २०, पृष्ठ ४२-चाकों द्वारा जगत्कर्ता ईश्वर का निषेध किया है यह पूर्वपक्ष पृ. ६ पर आया है । जैन इस से सहमत हैं। इस पर नैयायिकों के तर्कों का यहां विस्तार से विचार करते हैं । ईश्वर कर्ता है यह कथन तभी सम्भव होगा जब जगत को कार्य सिद्ध किया जाय । अतः जगत कार्य है या नहीं इसी का पहले विचार किया है । यह विवरण बहुत कुछ अंश में प्रभाचन्द्र के वर्णन से प्रभावित है३ । १) धर्मकीर्ति-सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ॥ प्रमाणवार्तिक २.३१. २) प्रमेयकमलमार्तण्ड ६-२२ : ये च विशेष्यासिद्धादयः असिद्धप्रकाराः परैरिष्टाः ते असत्सत्ताकवलक्षणा सिद्धप्रकारात् नार्थान्तरम् । ३) न्यायकुपुदचन्द्र पृ. १०१ और बाद का भाग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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