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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [प्र. ३३ 6 परि. १६--बौद्ध दार्शनिक निर्दोष हेतु के तीन लक्षण मानते थे- हेतु पक्ष में हो, सपक्ष में हो तथा विपक्ष में न हो ( उदा. धुंआ पर्वतपर है, रसोई में है, तथा सरोवर में नही है अतः धुंए से आग का अनुमान निर्दोष हैं ) यह तभी सम्भव है जब पक्ष, सपक्ष, विपक्ष ये तीन पृथक् रूप से विद्यमान हों । किन्तु यह बात अन्वयव्यतिरेकी अनुमान में ही सम्भव होती है । केवलान्वयी अनुमान में विपक्ष नही होता - उस का पक्ष में ही अन्तर्भाव होता है ( उदा. सब वस्तुएं' इस पक्ष से भिन्न कोई वस्तु नही है जिसे विपक्ष कहा जाय ) । इसी तरह केवल व्यतिरेकी अनुमान में सपक्ष का अस्तित्व नही होता ( इस का विवरण पृ. ३६ पर आया है ) | किन्तु फिर भी केवलान्वयी तथा केवलव्यतिरेकी अनुमान प्रमाण माने गये हैं इसी लिए जैन प्रमाणशास्त्र में हेतु के ये तीन लक्षण नही माने गये हैं-इन के स्थान में एक ही अन्यथा उपपत्ति न होना' यह लक्षण माना है । ८ ३१८ परि. १७, पृ. ३५ – आवरण दूर होने पर जीव का ज्ञान सब पदार्थों को जानता है इस अनुमान का उल्लेख पहले किया हैं (पृ. ४) । उसी का विस्तार यहां प्रस्तुत किया है | पूर्वोक्त स्थान पर इस अनुमान के उदाहरण के रूप में निर्मल नेत्र का उल्लेख किया है, इस पर चार्वाकों का आक्षेप था कि नेत्र में तो सत्र पदार्थों के देखने की क्षमता नहीं हैं अतः वह सब पदार्थों को जानने के साध्य का उदाहरण नही हो सकता प्रस्तुत दोष दूर करने के लिए यहां आचार्य ने नेत्र का उदाहरण न दे कर व्यतिरेक दृष्टान्त के रूप में मलिन मणि ( दर्पण ) का उदाहरण दिया है - मठिन दर्पण पदार्थों को प्रतिबिम्बित नहीं कर सकता उसी तरह आवरण सहित जीव सब पदार्थों को नही जान सकता । जब सब दोष दूर हो जाते हैं तो स्वाभाविक शक्ति से जीव सब पदार्थों को साक्षात् जानता है | पृष्ठ ३६ - उपर्युक्त अनुमान केवल व्यतिरेकी है । यहां कोई एक पुरुष यह पक्ष है, सब पदार्थों का साक्षात ज्ञाता होना यह साध्य है तथा सत्र पदार्थों के ज्ञान की योग्यता होने पर आवरण दूर होना यह हेतु है । इस अनुमान में विपक्ष ( सत्र पदार्थों को न जाननेवाले साधारण पुरुष ) तो विद्यमान है किन्तु पक्ष से भिन्न कोई सपक्ष विद्यमान नही है अतः सपक्ष में हेतु का अस्तित्व होना चाहिए यह नियम यहां नही लगाया जा सकता । सूक्ष्मादि पदार्थ प्रमेय हैं अतः वे किसी के द्वारा प्रत्यक्ष जाने गये हैं यह अनुमान भी पहले (पृ. ५) उद्धृत किया है । परि. १८, पृष्ठ ३८ – मीमांसक मत में धर्म-अधर्म ( पुण्य-पाप ) का साक्षात् ज्ञान पुरुष के लिए सम्भव नही माना है- यह ज्ञान आगम ( वेद ) के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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