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विश्वतत्त्वप्रकाशः
और संयम के फल के बारे में भी उन का कथन एकरूप था। किन्तु पार्श्वनाथ के समय इन विषयों की तार्किक चर्चा होती थी या नही यह स्पष्ट नही होता । पार्श्वनाथ की परम्परा के एक आचार्य केशी कुमार श्रमण महावीर के समकालीन थे। उन का प्रदेशी राजा के साथ जो संवाद हुआ उस का विवरण राजप्रश्नीय-सूत्र नामक उपांग में है। इस में जीव के मरणोत्तर अस्तित्व के बारे में विविध दृष्टान्त और युक्तियों का अच्छा निरूपण है।
पार्श्वनाथ तथा महावीर के मध्य का यह समय भारतीय दर्शनों के इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण है। आर्यावर्त की यज्ञप्रधान वैदिक संस्कृति तथा पूर्व भारत की तपस्याप्रधान श्रमण संस्कृति का संघर्ष इस समय शुरू था । इस के फलस्वरूप वैदिक परम्परा में ही आत्मवाद को प्रधानता देनेवाले उपनिषद् ग्रन्थों की रचना हुई । दूसरी ओर वेदों की प्रमाणता न माननेवाले सांख्य आदि दर्शन विकसित होने लगे । इन नये-नये सम्प्रदायों में सामाजिक तथा वैचारिक दोनों प्रकारका संघर्ष चलता रहा
और इस से तर्कवाद का महत्त्व बढता गया। धीरे धीरे त्रयी (तीन वेद) के साथ आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) को भी शास्त्र का रूप प्राप्त हुआ।
३. महावीर तथा उन का समय-अन्तिम तीर्थंकर महावीर क्षत्रिय कुण्डग्राम के राजा सिद्धार्थ के पुत्र थे । आयु के तीसवें वर्ष उन्हों ने दीक्षा ग्रहण की, बारह वर्ष तपस्या की, तथा ४२ वें वर्ष में सर्वज्ञ होने पर तीस वर्ष तक धर्मोपदेश दिया। उन का निर्वाण सनपूर्व ५२७ में हुआ। अतः सनपूर्व ५५७ से ५२७ यह उन का उपदेश काल था। उन का निर्वाण पावापुर के समीप हुआ था।
१) भगवतीसूत्र २-५-१०९ तुंगियाए नयरीए बहिया पुप्फवतीए चेइए पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाइं एयारूवाई वागरणाई पुच्छिया। संजमे णं भंते किंफले तवे णं भंते किंफले। तए णं ते थेरा भगवंतो समणोवासए एवं वदासी संजमे णं अज्जो अणण्हयफले तवे वोदाणफलेसच्चे णं एसमटे णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए । २) यह तिथि प्रचलित परम्परा के अनुसार है। कुछ विद्वान सनपूर्व ४६७ यह निर्वाणवर्ष मानते हैं।
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