SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -८१] सांख्यदर्शनविचारः २६३ मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त' । षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः॥ *(सांख्यकारिका ३) इति सांख्याः सम्यक् प्रत्यपीपदन् । [.८१. महदायुत्पत्तिनिषेधः । ] अत्र प्रतिविधीयते । यत् तावदुक्तं प्रकृतेर्महानुत्पद्यत इति प्रकृतिरुपादानत्वेन बुद्धिमुत्पादयति सहकारिनिमित्तकारणत्वेन वा। न तावदाद्यः पक्षः चेतनाया बुद्धेरचेतनोपादानकारणकत्वानुपपत्तेः। तथा हि। बुद्धि चेतनोपादाना चेतनत्वादनुभववत् । ननु बुद्धश्चेतनत्वमसिद्धमिति चेन्न । बुद्धिश्चेतना स्वसंवेद्यत्वात् आत्मवदिति बुद्धे श्चेतनत्वसिद्धेः। ननु बुद्धेः स्वसंवेद्यत्वाभावादयमप्यसिद्धो हेतुरिति चेन्न । बुद्धिः स्वसंवेद्या स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्यवच्छेदाय सजातीयपरानपेक्षत्वात् आत्मवदिति बुद्धः स्वसंवेद्यत्वसिद्धेः। अथ अयमप्यसिद्धो हेतुरिति चेन्न । बुद्धिः स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्यवच्छेदाय सजातीयपरानपेक्षा तथा इन्द्रिय एवं महाभूत विकृति हैं ( ये किसी से उत्पन्न होते हैं - इन से कुछ उत्पन्न नही होता ) पुरुष प्रकृति भी नही है तथा विकृति भी नही है। यह सांख्य मत की सृष्टि-प्रक्रिया है। ८१. महद् आदि की उत्पत्ति का निषेध-प्रकृति से बुद्धि ( महान् ) उत्पन्न होती है यह कथन हमें उचित प्रतीत नही होता क्यों कि प्रकृति अचेतन है तथा बुद्धि चेतन है। बुद्धि और अनुभव दोनों स्वसंवेद्य हैं। बुद्धि के विषय में कोई भी संशय बुद्धि से ही दूर हो सकता है, तथा इन्द्रियों के प्रयोग के विना ही बुद्धि का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है अतः बुद्धि स्वसंवेद्य है-अत एव चेतन भी है। अतः अचेतन प्रकृति चेतन बुद्धि का उपादान कारण नही हो सकती । सांख्य मत में प्रकृति को निमित्त कारण या सहकारी कारण नही माना है अतः उस का विचार आवश्यक नही। . महत् ( बुद्धि) से अहंकार उत्पन्न होता है यह कथन भी ठीक नही । बुद्धि आत्मा का गुण है अतः वह किसी का उपादान कारण १ महानहंकारः गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः इति पञ्चतन्मात्राः इति सप्त । २ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि वाक्पाणिपादपायूपस्थानि पश्चतन्मात्रेभ्यः जाताः पृथिव्यप्तेजोबाय्वाकाशाः पञ्च इति षोडश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy