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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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जगदुत्पादिका प्रकृतिः प्रधानं बहुधानकमिति प्रकृतेरभिधानानि च । ततः प्रकृतेर्महानुत्पद्यते । आसर्गप्रलयस्थायिनी' बुद्धिर्महान् । ततो महतः सकाशादहंकार उत्पद्यते अहं ज्ञाता अहं सुखी अहं दुःखी इत्यादिप्रत्ययविषयः । ततोऽहंकारात् गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः पञ्च तन्मात्राः स्पर्शनरसनत्राणचक्षुःश्रोत्राणि पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपायूपस्थानि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि मनश्चेति षोडशगणाः समुत्पद्यन्ते । तेषु षोडशगणेषु पश्चतन्मात्रेभ्यः पञ्च भूतानि समुत्पद्यन्ते । तद् यथा । गन्धरसरूपस्पर्शेभ्यः पृथ्वी, रसरूपस्पर्शेभ्यो जलं, रूपस्पर्शाभ्यां तेजः, स्पर्शाद् वायुः, शब्दादाकाशं समुत्पद्यते इति सृष्टिक्रमः । एतानि चतुर्विंशतितत्वानि । पञ्चविंशको जीवः इति निरीश्वरसांख्याः । षड्विंशको महेश्वरः सप्तविंशकः ः परममुक्त इति सेश्वरसांख्याः । तेषु तत्त्वेषु
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मैं ज्ञाता हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं आदि प्रत्यय इस अहंकार के विषय हैं । अहंकार से पांच तन्मात्र तथा ग्यारह इन्द्रिय ऐसे सोलह तत्त्वों क समूह उत्पन्न होता है । गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, तथा शब्द ये पांच तन्मात्र हैं । स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु तथा श्रोत्र ये पांच ज्ञानेन्द्रिय ह वाणी, हाथ, पांव, गुद तथा उपस्थ ये पांच कर्मेंद्रिय हैं तथा मन ग्यारहवां इन्द्रिय है । इन में पांच तन्मात्रों से पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं। गन्ध, रस, रूप तथा स्पर्श से पृथ्वी होती है । रस, रूप तथा स्पर्श से जल होता है । रूप तथा स्पर्श से तेज होता है । स्पर्श से वायु तथा शब्द से आकाश होता है । इस प्रकार प्रकृति से महाभूतों तक चौवीस तत्त्व हैं । पच्चीसवां तत्त्व जीव है । निरीश्वरसांख्य इतने ही तत्त्वों को मानते हैं । सेश्वरसांख्य इन में दो तत्व और जोडते हैं- महेश्वर तथा परममुक्त । इन में मूल प्रकृति अविकृति है ( दूसरे किसी तत्त्व का विकार नही है ) । महत् से तन्मात्र तक सात तत्त्व प्रकृति तथा विकृति दोनों हैं ( ये किसी से उत्पन्न होते हैं तथा इन से कुछ उत्पन्न होता है ) ।
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१ आजन्मप्रलयः जन्ममरणपर्यंतम् । २ प्रत्ययो विषयो यस्याहंकारस्य सः ।
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