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प्रमाणविचारः
अनिवार्यो बोभूयते । तस्माद् भोगात् प्रागुपार्जिताशेषकर्मपरिक्षयाङ्गीकारे तत्कर्मफलभोगावसरे इच्छाद्वेषप्रयत्नैः कायवाङ्मनोव्यापार सद्भावात् अभिनवकर्मबन्धप्रवाहो दुरुत्तरः स्यात् इति कदाचित् कस्यापि तन्मते मोक्षो नास्तीति निश्चीयते । तस्मान्मोक्षार्काक्षिणां परीक्षकाणां वैशेषिकपक्ष उपेक्षणीय एव स्यात् नोपादेय इति स्थितम् । [ ७३. न्यायदर्शनविचारे प्रत्यक्षलक्षणपरीक्षा । ]
अथ मतं 'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभास छलजातिनिग्रहस्थानानां तवज्ञानान्निःश्रेय - साधिगमः ' ( न्यायसूत्र १ - १ - १ ), इति नैयायिकपक्षो मुमुक्षणामुपादेय इति तदयुक्तम् । तदुक्तप्रकारेण षोडशपदार्थानां याथात्म्यासंभवात् । तथा हि । प्रमाणं नाम किमुच्यते । अथ सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम् ( न्यायसार पृ. १ ) तत्र सम्यग् ग्रहणं संशयविपर्ययव्यवच्छेदार्थम् । अनुभव ग्रहणं स्मरणनिवृत्त्यर्थम् । साधनग्रहणं प्रमातृप्रमेययोर्व्यवच्छेदार्थम् । प्रकर्षेण
होता है जब बोलने की इच्छा से वायु को प्रेरित कर कण्ठ में लाया जाता है । तथा मन का कार्थ- विचार तभी होता है जब स्मरण की इच्छा से मन तथा संस्कारों के साथ आत्मा जाने हुए पदार्थों का स्मरण करता है। तात्पर्य - सब कार्य इच्छा और द्वे के बिना नही हो सकते । इच्छा और द्वेष तभी होते हैं जब मिथ्याज्ञान विद्यमान हो - तत्त्वज्ञान न हो । तात्पर्य यह हुआ कि कर्मों का फल भोग तभी संभव है जब मिथ्याज्ञान विद्यमान होता है । अतः उस से उत्तरोत्तर नये कर्मोका बन्ध होता रहेगा यह भी स्पष्ट है । अतः सिर्फ फलभोग से ही कर्मों का क्षय होता हो तो कर्मबन्ध की परस्परा कभी खण्डित नही होगी - मोक्ष प्राप्त होना संभव नही होगा । अतः मोक्ष के लिए वैशेषिक पक्ष का अनुसरण उपयोगी नही है यह स्पष्ट हुआ ।
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७३. न्यायदर्शन का प्रत्यक्ष लक्षण – न्यायदर्शन का प्रथम मन्तव्य है कि ' प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जलप, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान इन पदार्थों का तत्त्वज्ञान होने से निःश्रेयस प्राप्त होता
१ प्रमाता प्रमेयं च प्रमाणं न भवति ।
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