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________________ २३८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [७२- यदप्यन्यदवादीत् प्रागुपार्जिताशेषशुभाशुभकर्मणां परिक्षयस्तु भोगादेवनान्यथेति-तदप्यतत्वज्ञभाषितम्। ध्यानोत्कर्षानिर्वाताचलप्रदीपावस्थान मिव चित्तस्य शुद्धात्मतत्त्वे अवस्थानं समाधिः इत्येवंविधसमाधेः सका. शात् प्रागुपार्जिताशेषकर्मपरिक्षयस्य सद्भावात् । अथ क्रमभाविनानाभवेषु एकस्मिन् भवे वा सकलकर्मणां फलभोगादेव परिक्षयो नान्यथेति नियमश्वेत् तर्हि कदाचित् कस्यचिदपि मोक्षो न स्यात् । कुत इति चेत् स्वात्मनि वर्तमानसुखदुःखसाक्षात्कारो भोगः स च इष्टानिष्टषट्प्रकारविश्यानुभवादेव भवति । स विषयानुभवोऽपि कायवाङ्मनोव्यापारादेव भवति । सोऽपि व्यापार इच्छाद्वेषाभ्यां प्रवृत्तप्रयत्नाद भवति । तत् कथमिति चेत् , प्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेषप्रवर्तनात् ।। वायोः शरीरयन्त्राणि वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु ॥ (समाधितन्त्र १०३) इति वचनात् । विवक्षाजनितप्रयत्नप्रेरितकोष्ठयवायुना कण्ठादिस्थाने अभिघात उच्चारणम् इति वचनात् । सुस्मूर्षाजनितप्रयत्नप्रेरित मनोद्रव्यसंस्कारसहितात्मनः प्रागनुभूतार्थे ज्ञानं चिन्ता इति वचनाच्च । कायवाङ्मनोव्यापारः इच्छाद्वेषाभ्यां विना न भवति । तौ च इच्छाद्वेषौ मिथ्याज्ञानमन्तरेण न भवतः इति मिथ्याज्ञानसद्भावो निश्चीयते, ततश्च तत्त्वज्ञानाभावोऽपि निश्चित एव स्यात् । तथा च उत्तरोत्तरकर्मबन्धप्रवाहो पूर्जित कमों का क्षय फल भोगने से ही होता है यह कथन भी ठीक नही । ध्यान के उत्कर्ष से निश्चल दीपकके समान निश्चल चित्त की शद्ध आत्मा के विषय में जो स्थिरता होती है उस से-समाधि से पूर्वार्जित कर्मों का क्षय होता है। यदि भोग से ही कमों का क्षय मानें तो किसी को मोक्ष प्राप्त नही । हो सकेगा । आत्मा को सुख-दुःख का अनुभव होना ही भोग है- वह इष्ट, अनिष्ट विषयों से ही प्राप्त होता है। विषयों का अनुभव शरीर, वाणी तथा मन के कार्य के विना नही होता । ये कार्य इच्छा और • से प्रेरित प्रयत्न के विना नही होते। कहा भी है- 'इच्छा और द्वेष की प्रेरणा से आत्मा का प्रयत्न होता है-उस से वायु प्रवृत्त होता है है तथा वायु के द्वारा शरीर के अवयव अपने कार्यो में प्रवृत्त होते हैं।' इसी प्रकार वाणी का कार्य-शब्द का उच्चारण भी तभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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