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________________ २३६ विश्वतत्त्वप्रकाशः [७२ज्ञाननिवृत्तौ तज्जन्येच्छाद्वषरूपदोषनिवृत्तिः, तद्दोषनिवृत्तौ तज्जन्यकायवाङ्मनोव्यापाररूपप्रवृत्तिनिवर्तते, तत् प्रवृतिनिवृत्तौ तज्जन्यपुण्यपापबन्धलक्षणजन्मनिवृत्तिरित्यागामिकर्मबन्धनिवृत्तिस्तत्वज्ञानादेव भवति । प्रागुपार्जिताशेषकर्मपरिक्षयस्तु भोगादेव नान्यथा। तथा चोक्तम् नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि। अवश्यमनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ (उद्धृत-व्योमवतोटोका पृ. २०) इति । तत्रापि। कुर्वनात्मस्वरूपज्ञो भोगात् कर्मपरिक्षयम् । युगकोटिसहस्रेण कश्चिदेव विमुच्यते ।। इत्यनेकभवेषु मेण प्रागुपार्जिताशेषकर्मफलभोगः इत्येकः पक्षः। आत्मनो वै शरीराणि बहूनि मनुजेश्वर ।। प्राप्य योगबलं कुर्यात् तैश्च सर्वां महीं भजेत् ।। भुञ्जीत विषयान् कैश्चित् कैश्चिदुग्रं तपश्चरेत् । सहरेच्च पुनस्तानि सूर्यस्तेजोगणानिव ॥ ___ ( उद्धृत-न्यायसार पृ.९०) दूर होता है; मिथ्या ज्ञान के नाश से इच्छा और द्वेष ये दोष दूर होते हैं; इच्छा और द्वेष के न रहने से शरीर, वाणी तथा मन की क्रिया न होने से पुण्य, पाप का बन्ध और तदाश्रित आगामी जन्म नही होता--इस तत्त्वज्ञान से आगामी कर्मों की निवृत्ति होती है। पूर्वार्जित कर्म की निवृत्ति उन के फल मिलने से ही होती है। कहा भी है- सैंकड़ों करोड कल्प काल बीतने पर भी कोई कर्म फल दिये विना निवृत्त नही होता: जो शुभ या अशुभ कर्म किया है उस का फल अवश्य ही भोगना पडता है, और भी कहा है-' आत्मा के स्वरूप को जानने पर भी पूर्वार्जित कर्मों का फल भोग कर उन की निवृत्ति करने में हजारों करोड युग बीतने पर कोई एक मुक्त होता है ।' इस विषय में मतान्तर भी है । 'योगबल प्राप्त कर आत्मा के बहुतसे शरीर हो सकते हैं तथा उन शरीरों से सारी पृथ्वी का उपभोग लिया जा सकता है। कुछ शरीरों से विषयों का उपभोग होता है, कुछ से उग्र तप होता है तथा अन्तमें जैसे सूर्य अपने किरणों को समेटता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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