SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३४ विश्वतत्त्वप्रकाशः निश्चीयते । स्वशास्त्रशब्दश्रवणसंस्कारात् संकल्पमात्रेण तस्य मानसप्रत्यक्षत्वे एष पन्ध्यासुतो याति शशशृङ्गधनुर्धरः। मृगतृष्णाम्भसि स्नात्वा खपुष्पकृतशेखरः।। इत्यादिशब्दश्रवणसंस्काराद् वन्ध्यासुतादयोऽपि मानसप्रत्यक्षगोचरत्वेन सत्यभूताः स्युरविशेषात् । अथ तद्वाक्यस्य बाधितविषयत्वेन तत्संस्कारजस्य मानसप्रत्यक्षस्य मिथ्याज्ञानत्वमिति चेत् तर्हि दिगभिधानश्रवणसंस्कारजस्य मानसप्रत्यक्षस्थापि मिथ्याशानत्वं कुतो न स्यात् । तत्रापि निर्विषयत्वाविशेषात् । तस्माद् दिग्द्रव्यग्राहक प्रमाणाभावादाकाशातिरिक्तं दिग्द्रव्यं नास्तीति निश्चीयते । [७१. वैशेषिकसमतपदार्थविचारोपसंहारः।] तथा 'नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः' (प्रशस्तपादभाष्य पृ. ५५) इत्येतदपि न जाघटयते । द्रव्यगुणक्रियाव्यक्तिव्यतिरेकेणापरविशेषाणा. मनुपलब्धेः तत्साधक प्रमाणाभावात् तेषामप्यभाव एव। तथा उत्क्षेपणावक्षेपणाकुःञ्चनप्रसारणगमनमिति पञ्चैव कमाणीत्ययुक्तम् । चलनभ्रमणादीनामन्येषामपि कर्मणां सद्भावात् । अथ तेषां तत्रैवान्तर्भाव इति चेत् तर्हि सर्वेषां कर्मणां चलनात्मके कर्मण्यन्तर्भावो विभाव्यत इति एक एव कर्मपदार्थः स्यान्न पञ्च कर्माणि । के सींग का धनुष ले कर, मृगजल में नहा कर, तथा आकाश का फूल सिर पर रख कर जा रहा है' आदि कथन भी ' मानस प्रत्यक्ष से निश्चित' होगा । अतः मानस प्रत्यक्ष से दिशा का अस्तित्व मानना भी निराधार है। .१ वैशेषिकों के पदार्थोंका विचार - जो नित्य द्रव्यों में रहते हैं वे अन्तिम विशेष होते हैं ' यह वैशेषिक मत का कथन भी उचित नही द्रव्य, रण तथा क्रिया इन की व्यक्तियों से भिन्न विशेष नामक किसी पदार्थ का अस्तित्व प्रमाण से सिद्ध नही होता। उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमन ये पांच प्रकार के कर्म मानना भी अनुचित है-इन से भिन्न चलना आदि क्रियाएं भी होती हैं । चलने आदि का उक्त पांच कर्मों में अन्तभीव होता है-यह समाधान भी पर्याप्त नहीं। वैसे उक्षेपण आदि का अन्तर्भाव भी चलन इस एक कर्म में ही हो सकता है । अतः कर्म-पदार्थ की गणना उचित नही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy