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मायावादविचारः
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जलवन्द्रादिष्टान्तेन आत्मैक्यप्रतिपादनं न यो पुज्यते जलचन्द्रादीनाम: प्येकत्वाभावादिति स्थितम् । [५०. आत्मबहुत्वसमर्थनम् । ]
तथा आत्मा अनेकः द्रव्यत्वव्यतिरिक्त सत्तावान्तरसामान्यवत्त्वात् पयोवत् । ननु आत्मनो द्रव्यत्वव्यतिरिक्तसत्तावान्तरम्गमान्यवत्वमसिद्धमिति चेत्र । आत्मा द्रव्यत्वव्यतिरिक्तसत्ताधान्तरसामान्यवान् स्वसंवेद्य. त्वात् रूपरसादिशानवदिति आत्मनो द्रव्यत्वव्यतिरिक्तसत्तावान्तरसामान्यवस्वसिद्धेः। ननु रूपरसादिज्ञानानां द्रव्यत्वव्यतिरिक्तसत्तावान्तरसामान्यवस्वाभावात् साध्यविकलो दृष्टान्त इति चेन । रूपरसादिज्ञानानि द्रव्यत्वव्यतिरिक्तसत्तावान्तरसामान्यवन्ति असर्वगतत्वे सति परस्पर विभिन्नत्वात् खण्डमुण्डसाबलेयादिवदिति रूपरसादिज्ञानानां तत्सद्भावसिद्धेः । ननु रूपरसादिज्ञानानां परस्परं विभिन्नत्वाभावात् विशेष्यासिद्धो हेतुरिति चेन्न । रूपरसादिज्ञानानि परस्पर विभिन्नानि भिन्नसामग्रीजन्यत्वात् गोमयमोदकादिवदिति तेषां परस्परं विभिन्नत्वसद्भावात्। ननु रूपरसादिज्ञानानां विभिन्नसामग्रीजन्यत्वमप्यसिद्धमिति चेन्न । चक्षुषैव रूपशानं रसनेनैव रसशानं घ्राणेनैव गन्धज्ञानं स्पर्शनेनैव
अन्यत्र प्रतीत नही होता किन्तु इस से वह असत्य सिद्ध नही होता । अतः प्रतिबिम्ब सत्य हैं। तदनुसार चन्द्र और प्रतिबिम्ब के उदाहरण से आत्मा में एकता का प्रतिपादन करना उचित नही है ।
५०. आत्माके अनेकत्वका समर्थन ---अब आत्मा के अनेकत्व का प्रकारान्तर से समर्थन करते हैं । आत्मा में सत्ता तथा द्रव्यत्व इन के अतिरिक्त एक सामान्य ( आत्मत्व ) पाया जाता है - यह तभी संभव है जब आत्मा अनेक हों। आत्मत्व का अस्तित्व रूपज्ञान, रसज्ञान आदि के समान स्वसंवेदन से सिद्ध होता है। रूपज्ञान, रसज्ञान आदि सर्वगत नहीं हैं, परस्पर विभिन्न हैं उसी प्रकार आना भी परस्पर विभिन्न हैं। रूपज्ञान, रसज्ञान आदि भिन्न सामग्री से उत्पन्न होते हैं - रूप का ज्ञान चक्षु से होता है, रस का ज्ञान जिव्हा से होता है अतः ये गोबर और
१ द्रव्ये द्रव्यत्वमिति लक्षणं सामान्यम् एकं नित्यं वर्तते अत उक्तं द्रव्यत्वव्यतिरिक्तम् ।
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