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________________ १६६ विश्वतत्त्वप्रकाश [४९गात्रादिसकलदेवमनुष्यमृगपशुपक्षिवनस्पत्यादिशरीरेषु प्रवर्तमानसुखदुःखानामनुसंधाता कोऽपि नास्तीति निश्चीयते। ततश्च प्रतिक्षेत्र क्षेत्रज्ञभेदः सुखेनावतिष्ठते। [४९. प्रतिबिम्बवादनिरासः।] ननु एक एव हि भूतात्मा देहे देहे व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ ( अमृतबिन्दूपनिषत् १२) तथैव। ब्राह्मयमेव परं ज्योतिर्मनसि प्रतिबिम्बितम् । विशेषावस्थितो जीवः' सावित्रमिव सन्मणौ ॥ इत्यविद्याकार्याणि मनांस्यन्तःकरणाभिधानान्यनन्तानि तेषु ब्रह्मणः प्रतिबिम्बावस्थिता जीवा भवन्ति निर्मलमणिदर्पणजलपात्रादिषु सूर्यचन्द्रदूर करने के लिये वह दूसरे व्यक्ति को अवश्य प्रवृत्त करता। किन्तु ऐसा होता नही है । अतः मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जीवों के सुखदुःख अलग अलग हैं -- उन सब के सुखदुःख का किसी एक को अनुसंधान नही होता यह स्पष्ट होता है। अतः प्रत्येक शरीर में भिन्न भिन्न जीवों का अस्तित्व सिद्ध होता है। . ४९. प्रतिबिम्ब वादका निरास -वेदान्तियों का कथन है कि - ‘चन्द्र एक होकर भी पानी में अलग अलग दिखाई देता है उसी प्रकार एक ही भूतात्मा अलग अलग शरीरों मे अवस्थित है। जिस तरह सूर्य का तेज रत्न में प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार मन में प्रतिबिम्बित ब्रह्म के ही परम ज्योति को जीव कहा जाता है।' अत: मन, अन्तःकरण तो अनन्त हैं किन्तु उन सब में एक ब्रह्म का ही प्रतिबिम्ब होता है। किन्तु यह कथन दोषपूर्ण है। एक का दूसरे में प्रतिबिम्ब होने के लिये यह आवश्यक है कि वे दोनों चक्षु से ग्राह्य हों तथा भिन्न मिन्न स्थान में स्थित हों। चन्द्र तथा जल दोनों चक्षु से दिखाई देते हैं तथा अलग अलग स्थानों में हैं १ भण्यते । २ सौर्य परं ज्योतिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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