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________________ - ४८ ] मायावादविचारः बाधितविषयत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वमिति चेन्न । तदागमप्रामाण्याभावस्य प्रागेव प्रमाणैः समर्थितत्वात् । उभयवाद्यभिमतागमो बाधको नान्यतरश्च । ननु जीवस्योपहितचैतन्यत्वेन' अङ्गुल्याद्यवयवावष्टब्धचैतन्यचदनुसंधातृत्वाभावात् साधनविकलो दृष्टान्त इति चेन्न । प्रतीतिविरोधात् । कुतः पादाभ्यां गच्छामि पाणिभ्यामाहरामि श्रोत्राभ्यां शृणोमि चक्षु पश्यामि पादे मे वेदना शिरसि मे वेदना इति जीवस्यानुसंधानप्रतीतेः । तस्यानुसंधानाभावे भोक्तृत्वमपि न स्यात् । तथा हि जीवो भोक्ता न भवति अनुसंधानरहितत्वात् उपाहेत चैतन्यत्वात् अङ्गुल्यग्रोपहितचैतन्यवदिति । जीवस्य भोक्तृत्वानुसंधातृत्वाभावे पादतलादिदुःखहेतुपरिहाराय पाणितलादिव्यापारः प्रतीयमानो हीयेत । तस्मात् जीवात्मन्यनुसंधाहृत्वस्य भोक्तृत्वेन व्याप्तत्वनिश्चयात् स्वरूपस्यानुसंधातृत्वाङ्गीकारे भोक्तृत्वस्यावश्यंभावित्वेन चैत्रगात्रदुःखहेतु परिहाराय मैत्रगात्रव्यापारस्त्ववश्यं भवेदेव । न चैवमुपलभ्यते । तस्मात् चैत्रमैत्र 1 १६५ 1 - दूसरे व्यक्ति को वह अवश्य प्रेरित करेगा । ब्रह्म का भोक्ता होना आगम (उपनिषद्वचन ) से बाधित है यह कथन भी ठीक नही क्यों कि वेद के प्रामाण्य का हम ने पहले ही विस्तार से खण्डन किया है । आगम वही बाधक होता है जो दोनों वादियों को मान्य हो । जीव का चैतन्य उपहित ( आच्छादित है अतः अंगुली में अवस्थित चैतन्य के सवान यह भी अनुसंधाता नही है। अतः जो अनुसंधाता है वह भोक्ता है इस कथन का यह दृष्टान्त नही होगा यह भी वेदान्ती नहीं कह सकते । मैं पांत्र से चल रहा हूं, हाथ से ले रहा हूं, कानों से सुन रहा हूं आदि प्रतीति से यह स्पष्ट है कि जीव को अनुसंधान होता है । यदि जीव अनुसंधाता नही होता तो भोक्ता भी नही होता - अंगुली में अवस्थित चैतन्य अनुसंधाता नही है, वह भोक्ता भी नही है । जीव यदि अनुसंधाता व भोक्ता नही होता तो एक अवयव की पीडा दूर करने के लिये दूसरे अवयंव को प्रयुक्त नही कर सकता। तात्पर्य यह कि जो चैतन्य अनुसंधाता होता है वह भोक्ता अवश्य है । ब्रह्म यदि अनुसंधाता है तो वह भोक्ता भी अवश्य होगा । तदनुसार एक व्यक्ति के दुःख को 1 १ अनुसंधातृत्वात् इति । २ उपाधियुक्त चैतन्यत्वेन । ३ जीवस्वरूपवत् इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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