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________________ -४८] मायावादविचारः १६३ तथा प्रतिक्षेत्र क्षेत्रशभेदाभावे एकस्मिन् क्षेत्रज्ञे सुखिनि सर्वे क्षेत्रमा सुखिनो भवेयुः, एकस्मिन् दुःखिनि सर्वे दुःखिनः स्युः । न चैवं दृश्यते। ननु एकस्मिन्नपि शरीरे पाणिपादाधुपाधिनिवन्धना सुखदुःखादिव्यवस्था एकस्यैव देहिनः प्रतीयते तथा अनेकेष्वपि देहेषु एकस्यैव देहिनः उपाधिनिबन्धना सुखदुःखादिव्यवस्था सुखेन जाघटयत इति चेन्न। तथा सति यथा एकस्मिन् शरीरे एकस्य शरीरिणः पाणिपादशिरोजठराद्यपाधिनिबन्धनतया प्रवर्तमानसुखदुःखादिष्वनुसंधान तथा देवमनुष्यमृगपशुपक्षिकीटकवनस्पतिनारकादिशरीरोपाधिनिबन्धनतया प्रवर्तमानसुखदुःखादिषु एकस्यात्मनः अनुसंधानप्रसंगात् । ननु यथा एकस्मिन्नपि शरीरे बुद्धीन्द्रिय कर्मेन्द्रिय शिरोजठराद्युपहितचित्प्रदेशानां परस्परमनुसंधानाभावस्तथा देवमनुष्यमृगपशुपक्षिकीटकवनस्पत्यादिशरीरोपहितानां परस्परमनुसंधानाभाव एव। अपि तु यथा तत्र बुद्धीन्द्रियतो एक आत्मा के सुखी होने पर सब सुखी होते तथा एक दुःखी होने पर सब दुःखी होते । किन्तु ऐसा होता नही है। जैसे एक ही शरीर में हाथ, पांव आदि के अलग अलग सुख-दुःख होते हैं, वैसे एकही आत्मा के अलग अलग शरीरों के अलग अलग सुवदुःख होते हैं - यह कथन भी अनुचित है। हाथ-पांव आदि के सुखदुःख का अनुसंधान (-संवेदन ) एक ही आत्मा को होता है। किन्तु देव, मनुष्य, मृग, पशु, पक्षी आदि के सुख-दुःख का किसी एक आत्मा को अनुसंधान होता हो ऐसी प्रतीति नही होती । जैसे विभिन्न इन्द्रियों के चैतन्यप्रदेशों को परस्पर के सुखदुःख की प्रतीति नही होती वैसे ही विभिन्न शरीरों में स्थित चैतन्य-प्रदेशों को परस्पर सुखदुःख की प्रतीति नही होती; किन्तु सब इन्द्रियों में व्याप्त चैतन्य को ही स्वरूप का संवेदन होता है उसी तरह सब शरीरों में व्याप्त चैतन्य को ही स्व-रूप का संवेदन होता है - यह वेदान्तियों का कथन भी पर्याप्त नही है । सब इन्द्रियों में एक चैतन्य व्यापक है अतः पांव में लगे कांटे को निकालने में हाथ को १ उपाधिरेव निबन्धनं तस्य भावः तया । २ पदाभ्यां गच्छामि इत्यादि । ३ शरीराण्येव उपाधिः स एव निबन्धनम्। ४ मनोने त्रादि। ५ कर्मेन्द्रिय पाद्यादि बाक्पाणिपादपायूरस्थाः । ६ उपाधियुक्त । ७ चित्प्रदेशानाम् । ८ एकस्मिन् शरीरे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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