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________________ -४६] मायावादविचारः १५७ स्कारात् स प्रपञ्चो विनश्यति' इत्यभिहितत्वात् इति चेन्न । व्यासपराशरशुकवामदेवादीनामविद्यानिर्मितत्वेन तद्दश्यस्यः प्रपश्चस्य तद्ब्रह्मसाक्षात्कारात् विनाशाभावात् । तत् कथमिति चेत् तदविद्याकृतत्वेन तद्दश्यादीनां भूमण्डलाचण्डरश्मिमार्तण्डाखण्डलदिगाद्याकाशगङ्गातुङ्गभद्रोत्तुङ्गहिमवदादीनामद्याप्यबाध्यत्वेन अस्मदादिप्रमातृभिर्दर्शनात् । प्रतिप्रमातृविभिन्नाविद्याविनिर्मित विभिन्न प्रपञ्चदर्शनानुपपत्तेश्च । कुतः एकेन' दृष्टभूमण्डलादीनामेवान्यैरनन्तप्रमातृभिरपि दर्शनात् अन्यस्यादर्शनाच्च । अन्यथा एकेन प्रदर्शितमन्यो न पश्येत् एकेन प्रेषितमन्योन कुर्यादित्याद्यतिप्रसंगः स्यात् । तस्माद् व्यासपराशरशुकवामदेवादीनां श्रवणमनननिदिध्यासनैब्रह्मसाक्षात्कारो न जायते इति श्रवणादीनां ब्रह्मसाक्षात्कारकारणत्वाभावात् अग्रेतनकालेऽपि प्रमातणां तेभ्यस्तत् साक्षाकारो न जायते इति निश्चीयते । अथवा तेभ्य स्तत् साक्षात्कारोत्पत्तावपि तेन साक्षात्कारण प्रपञ्चस्य बाधः नास्तीति वा निश्चीयते । व्यासादिदृष्टवेदान्तियों का उत्तर है - उन ऋषियों के साक्षात्कार से उनकी अविद्या से निर्मित प्रपंच बाधित हुआ, दसरों की अविद्या से निर्मित प्रपंच बाधित नहीं हुआ अतः प्रपंच की प्रतीति इस समय भी होती है। जैसे कि कहा है - 'जिस प्रमाता की अविद्या से जो प्रपंच उत्पन्न हुआ वह उसी प्रमाता को दृश्य होता है तथा उसे साक्षात्कार होने पर वही ग्रपंच नष्ट होता है । ' किन्तु यह कथन दोषपूर्ण है। व्यास आदि ऋषियों को जो वस्तुएं दृश्य थीं उन में पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, दिशा, आकाश, गगा, तुंगभद्रा आदि नदियां, हिमालय आदि ऊंचे पर्वत -- इन सबका समावेश था । यदि उन के साक्षात्कार से ये सब नष्ट हो गये होते तो हमें कैसे दिखाई देते ? सभी प्रमाताओं को ये सब एकसे ही दिखाई देते हैं। अतः प्रत्येक प्रमाता का प्रपंच अलग अलग होता है यह कथन ठीक नही। यदि प्रत्येक का प्रपंच अलग अलग होता तो कोई व्यक्ति दूसरे को कोई चीज बतला नही सकता, एक के कहने पर दूसरा कोई कार्य नही कर सकता । अत: व्यास आदि के साक्षात्कार १ प्रमात्रा। २ प्रपञ्चस्यादर्शनात् । ३ अन्यप्रपञ्चस्य दर्शनं चेत् । ४ श्रवणादिभ्यः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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