SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -४६] ... मायावादविचारः MANA अथ प्रमाता ब्रह्मलाक्षात्कारो जायते स एव प्रपञ्चस्य बाधको भविष्यतीति चेन्न। ब्रह्मस्वरूपस्य प्रमा साक्षात्कारगोचरत्वे दृश्यत्वेन मिथ्यात्वप्रसंगात् । किं च । स च ब्रह्मसाक्षात्कारःप्रमातणां केन जायते। न तावदिन्द्रियान्तःकरणमात्रेण सकलपमातृणामिन्द्रियान्तःकरणसद्भावेऽपि ब्रह्मसाक्षात्कारस्याद्याप्युत्पत्तरदर्शनात् । अथ मतं श्रवणमनननिदिध्यासनात् ब्रह्मसाक्षात्कारो जायते। तथा हि। 'द्रष्टव्यो रेऽयमात्मा श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' (बृहदारण्यक उ. ४-५-६ ) इति ब्रह्मसाक्षात्कारविधायकमुपनिषद्वाक्यं श्रुत्वा प्रमाता प्रवर्तते । तत्रोपनिषद् वाक्यानां ब्रह्मणि तात्पर्यावधारणं श्रवणम् । श्रृतार्थस्य युक्त्या विचारणं मननम् , श्रवणमननाभ्यां निश्चितार्थमनवरतं मनसा परिचिन्तनं निदिध्यासनम् । तत्र नित्यानित्यवस्तुविवेकः शमदमादिसंपत्तिः अत्रामुत्र च वैराग्यं मुमुक्षुत्वमिति साधनचतुष्टयसंपन्नस्य निदिध्यासनपरता नान्यस्य। द्वारा अपना साक्षात्कार होता है यह मानना भी संभव नही है। तात्पर्य - ब्रह्म साक्षात्कार ब्रह्म को होता है यह कथन निराधार है । प्रमाताओं को ब्रह्म साक्षात्कार होता है इस कथन में भी कई दोष हैं। एक दोष तो यह है कि प्रमाता द्वारा ज्ञात होने से ब्रह्म दृश्य सिद्ध होगा तथा दृश्य है वह मिथ्या है यह वेदान्तियों का मत है । दूसरे प्रकार से भी विचार किया जा सकता है । यह साक्षात्कार सिर्फ इन्द्रिय या अन्तःकरण द्वारा तो नही होता - सभी लोगों के इन्द्रिय और अन्तःकरण के होने पर भी उन्हें साक्षात्कार की प्रतीति नही होती । अतः वेदान्तियों ने साक्षात्कार के तीन मार्ग बतलाये हैं - श्रवण, मनन और निदिध्यासन । 'इस आत्मा को देखना चाहिर, सुनना चाहिये, विचारना चाहिये, उस का निदिध्यास करना चाहिये ' ऐसे उपनिषद् वाक्यों को सुन कर श्रोता. साक्षात्कार के विषय में प्रवृत्त होता है। ऐसे वाक्यों का ब्रह्म में तात्पर्य समझना यही श्रवण है। इस तात्पर्य का युक्तिपूर्वक विचार करना यह मनन है। श्रवण-मनन से निश्चित हुए अर्थ का मन द्वारा सतत चिन्तन करना यह निदिध्यासन है। यह निदिध्यासन उसी को सम्भव होता है १ अस्मदादीनाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy