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________________ १४८ विश्वतत्त्वप्रक शः [४४ स्वरूपवत्। अथ प्रपञ्चस्याबाध्यत्वमसिद्धमिति चेन्न। वीतः प्रपञ्च अबाध्यः बाधकेन विहीनत्वात् परमात्मस्वरूपवत् इति तसिद्धेः। ननु प्रपञ्चस्य बाधकेन विहीनत्वमसिद्धमिति चेन्न । प्रत्यक्षादिप्रमाणानां तबाधकत्वानुपपत्तेः। तथा हि। अस्मदादीनां प्रत्यक्षं तावद् बाधकं न भवति अपि तु साधकमेव । यावज्जीवं सर्वैरपि पृथिव्यादिप्रपञ्चसत्यत्वस्यैव प्रत्यक्षेण ग्रहणात् । नानुमानमपि बाधकं तथाविधानुमानाभावात् । ननु प्रपञ्चो मिथ्या जडत्वात् रज्जुसर्पवदित्यस्तीति चेन्न । हेतो गासिद्धत्वात् । तत् कथम् । पक्षीकृतेषु प्रमिति - प्रमाणप्रमातषु जडत्वादिति हेतोरप्रवृत्तेः। कुतः अन्तःकरणावच्छिन्नं चैतन्यं प्रमात, प्रतिफलितविषयाकारमनोवृत्युपहितचैतन्यं प्रमाण, मेयावच्छिन्नं प्रमितिः, तेषां चैतन्यस्वरूपत्वेन जडत्वाभावात्। तथा प्रमित्यादिकम् अजडं स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्यवच्छेदाय परानपेक्षत्वात् परमात्मस्वरूपवदिति प्रमाणसदभावाच । ननु प्रमित्यादिकं जडं वेद्यत्वात् उत्पत्तिमत्वात् पटादिवदिति तेषां जडत्वसिद्धिरिति चेन्न । चाहिए। प्रपंच के अबाध्य होने का स्पष्टीकरण इस प्रकार है - हमारे प्रत्यक्ष से तो प्रपंच बाधित नही होता - सत्य ही सिद्ध होता है। सभी लोग पृथिवी आदि की सत्यता को प्रत्यक्ष से ही जीवनभर जानते हैं। अनुमान से भी प्रपंच बाधित नही होता । रस्सी में प्रतीत सांप के समान प्रपंच भी जड है अत: मिथ्या है - यह अनुमान वेदान्ती प्रस्तुत करते हैं। किन्तु प्रपंच में प्रमाता, प्रमाण, प्रमिति इन का भी समावेश है - ये जड नही हैं अतः प्रपंच जड कैसे हो सकता है ? वेदान्त में भी अन्तःकरण से अवच्छिन्न चैतन्य को प्रमाता माना है, प्रतिबिम्बित विषय के आकार की मनोवृत्ति से अवच्छिन्न चैतन्य को प्रमाण माना है तथा प्रमेय से अवच्छिन्न चैतन्य को प्रमिति माना है - ये सब चेतन हैं अतः उन्हें मिथ्या नहीं कहा जा सकता। प्रमिति आदि के विषय में संशय हो तो वह किसी दूसरे द्वारा दूर नही होता इससे भी इन का स्वसंवेद्य अतएव चेतन होना स्पष्ट है। प्रमिति आदि उत्पन्न होती है और ज्ञात होती है अतः वस्त्र आदि के समान जड है यह वेदान्तियों का १ प्रपञ्चस्य । २ इति बाधकमनुमानमस्तीति चेन्न । ३ अज्ञानपरिच्छित्तिः । ४ चैतन्यम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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