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१२६ विश्वतत्त्वप्रकाशः
[४१मेदाग्रहणादिदं रजतमिति पुमान् प्रवर्तते। तयोर्भेदग्रहणादिदं न रजतमिति निवर्तत इति । सोऽपि न युक्तवादी । तदुक्तस्य विचारासहत्वात् ।
तथा हि । यदप्यनूद्य निरास्थत्-शुक्तिरजतादेः कथं सत्यत्वमिति चेत् वीताः प्रत्ययाः यथार्थाः प्रत्ययत्वात् संप्रतिपन्नसमीचीनप्रत्ययवदिति प्रमाणसिद्धत्वादिति-तदसमञ्जसं हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात्। कुतः शुक्ताविदं रजतमिति प्रत्ययस्य नेदं रजतमित्युत्तरकालीननिर्बाधनिषेधप्रत्यक्षेणायथार्थत्वनिश्चयात् । किं च। मिथ्याज्ञानमस्तीति प्रत्ययः यथार्थोऽयथार्थो वा यथार्थश्चेत् मिथ्याज्ञानसद्भावात् तेनैव हेतोय॑भिचारः स्यात् । अयथार्थश्चेदनेनैव प्रत्ययेन हेतोर्व्यभिचार इति। अपि च। पराभ्युपगतं मिथ्याशानं पक्षीक्रियते इदमंशग्रहणं वा रजतांशस्मरणं वा। अथ पराभ्युपगतं मिथ्याज्ञानं धर्मीक्रियते चेत् धर्मी प्रमाणप्रसिद्धः अप्रसिद्धो वा। प्रथमपक्षे पक्षस्य धर्मिणो ग्राहकप्रमाणबाधितत्वात् कालात्ययापदिष्टो हेतुः स्यात् । द्वितीयपक्षे धर्मिणः प्रमाणप्रतिपन्नत्वाभावादाश्रयासिद्धो हेत्वाभासः स्यात् । अथ इदमंशग्रहणं धर्मीक्रियते चेत तर्हि इदमंशग्रहणस्य यथार्थत्वमस्माभिरप्यङ्गीक्रियत इति सिद्धसाध्यत्वेन
प्राभाकर मीमांसकों का यह सब कथन हमें ठीक प्रतीत नही होता। सब ज्ञान यथार्थ है यह कथन तो प्रत्यक्षबाधित है - एक ही वस्तु के विषय में ' यह चांदी है ' तथा ' यह चांदी नही है। ऐसे दो ज्ञान होते हैं - इन में दोनों यथार्थ नही हो सकते अतः पहले ज्ञान को अयथार्थ मानना ही होगा। प्रकारान्तर से यह स्पष्ट करते हैं -- 'यह ज्ञान मिथ्या है । यह प्रतीति यथार्थ है या अयथार्थ है ? यदि यथार्थ है तो मिथ्या ज्ञान का अस्तित्व मान्य होता है, यदि अयथार्थ है तो 'सब ज्ञान यथार्थ होते हैं ' यह कथन गलत सिद्ध होता है।
'यह चांदी का ज्ञान सत्य है ' इस कथन में यह मिथ्या ज्ञान' धर्मी है। यहां प्रतिवादी जिसे मिथ्या ज्ञान कहते हैं उससे तात्पर्य है अथवा ' यह कुछ है' इतने ज्ञान से तात्पर्य है अथवा चांदी के स्मरण से तात्पर्य है ? इनमें पहला पक्ष उचित नही । प्रतिवादी जिसे मिथ्या ज्ञान कहते हैं उसे यदि मीमांसक प्रमाणसिद्ध मानते हैं तो यह प्रमाण
१ प्राभाकरमते मिथ्याज्ञानं नास्ति अतः पराभ्युपगतमङ्गीकरोति । २ मिथ्याज्ञानम् ।
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