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________________ ११८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [ ३९ त्वात् संप्रतिपनज्ञानवदिति । यदव्यत्राभ्यवायि वीतो विग्यः असनेव भ्रान्तिविषयत्वात् स्वप्ननभोभक्षणवदिति शुक्तौ रजतज्ञानस्य निरालम्ब - त्वसिद्धेर्न साध्यविकलो दृष्टान्त इति तदसत् । धर्मिणः प्रमाणगोचरत्वे हेतोः स्वरूपासिद्धत्वात् । कथं प्रमाणगोचरे वस्तुनि भ्रान्तिविषयत्वाभा वात् धर्मिणः प्रमाणगोचरत्वाभावे हेतोराश्रयासिद्धत्वाच्च । एतेन यदप्यन्यदनुमानद्वयमभ्यधायि - वीतो विषयः असन्नेव अर्थक्रियायाम् असमर्थत्वात् तत्राविद्यमानत्वात् खपुष्पवदिति तदपि निरस्तम् । धर्मिणः प्रमाणगोचरत्वे तद्गोचरत्वे चोक्तदोषस्य एतदनुमानद्वयेऽपि समानत्वात् । किं च शुक्तिरजतद्रष्टुः पुरुषस्य संतोषेष्टसाधनानुमान तद्देशोपसर्पणाद्यर्थक्रियाकारित्वसद्भावेन अर्थक्रियायाम् असमर्थत्वादित्यसिद्धो हेत्वाभासः । तत्राविद्यमानत्वादित्ययमपि हेतुः साध्यसमत्वेना 'सिद्ध एव स्यात् । यद्यन्यदनुमानं प्रत्यपादि - तथा नेदं रजतमिति ज्ञानं प्रागप्यसत्त्वावेद का ज्ञान निराधार नही होता अतः इस अनुमान का उदाहरण भी दोषयुक्त है । सामने पडी हुई चमकीली सफेद तेजस्वी रंग की वस्तु ( सीप ) आधारभूत होने पर ही यह चांदी का ज्ञान होता है अतः यह निराधार नही है | स्वप्न में आकाश के भक्षण के समान ये विषय भ्रममूलक हैं यह कथन भी योग्य नही । यदि सभी विषय भ्रममूलक हों तो अनुमान में धर्मी का वर्णन भी भ्रममूलक होगा फिर उसे प्रमाण सिद्ध नहीं कह सकेंगे | तदनुसार सब अनुमान भी भ्रमजनक ही होंगे। ये विषय अर्थक्रिया में असमर्थ हैं अतः असत् हैं यह कहना भी ठीक नही क्यों कि सींप में चांदी के ज्ञान से भी चांदी देख कर प्रसन्न होना, उस के समीप जाना, उसे उठा कर देखना आदि अर्थक्रिया होती है । ये वित्रय अविद्यमान हैं अतः असत् हैं यह कथन भी उपयुक्त नही । अविद्यमान होना और असत् होना ये दोनों एकही हैं अतः एक को दूसरे का कारण बतलाना १ शुक्तिलक्षणवस्तु तदेव विषयो यस्य रजतज्ञानस्य । २ यथा संप्रतिपन्नज्ञानस्य पुरोवर्तिपदार्थः विषयः स तु आलम्बनः । ३ वीतो विषयः इति धर्मां स तु प्रमाणगोचरः -अप्रमाणगोचरो वा । ४ शुक्तौ रजतज्ञानं वर्तते तत् किं अर्थक्रियासमर्थम् अपि तु न तस्मात् अर्थक्रियां असमर्थत्वात् । ५ असन् इति साध्यम् अविद्यमानत्वमपि असत् इति साध्यसमत्वम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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