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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [ ३९ चेन्न । तथापीष्टापादनमित्येतद्दोषदुष्टत्वेन अतिप्रसंगस्य तर्काभासत्वात् । तथा द्वितीयपक्षेऽपि तस्मादितरज्ञानेन घटोऽस्तीति निश्चीयत इति विपर्यये पर्यवसानं कर्तव्यं तथा सति प्रत्यक्षबाधितत्वेन विपर्यये पर्यवसानासंभवात् तर्काभासत्वमेव भवदुक्तेतरेतराश्रयस्येति । किं च । ज्ञानेन ज्ञेयं निश्चीयते प्रकाशकप्रदीपादिना प्रकाश्यप्रकाशवत् । न च तस्य घटादिविशेषणतया प्रकाशनमस्ति। तद्वदुत्पन्नं ज्ञानमपि घटादिविशेषणमन्तरेणैव योग्यदेशकालावस्थितानेकार्थान् निश्चिनोतीति एकज्ञानेनैकार्थग्रहणाभाव एव । तत् कथमिति चेत् एकद्रव्यग्रहणेऽपि सत्तादिजातीनां संख्यादिगुणानां देशकालादीनांच ग्रहणात् एकगुणादिग्रहणेऽपि तदाश्रयाश्रितादीनामपि ग्रहणाच । ननु एवं चेदेकज्ञानेन सकलार्थग्रहणं प्रसज्यत इति चेत् तदस्त्येव केवल ज्ञानेनैकेन सिद्ध नहीं करता क्यों कि ' घट है' यह हमें अमान्य नही है। दूसरे, 'पट-ज्ञान से घट का ज्ञान होता है' यह विरुद्ध तत्त्व प्रत्यक्ष से ही बाधित है अतः माध्यभिक उस का सहारा नहीं ले सकते। (यह तान्त्रिक विवाद छोडकर विचार करें तो) तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रकाश साधारण रूप से सभी वस्तुओं को प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान साधारण रूप से सब वस्तुओं को जानता है। जैसे घट का प्रकाश, पट का प्रकाश यह भेद करना सम्भव नही वैसे घट का ज्ञान, पट का ज्ञान ये भिन्न मानना योग्य नही । एक ही ज्ञान योग्य समय तथा प्रदेश में स्थित अनेक पदार्थों को जानता है । एक घट के ज्ञान में भी अस्तित्वादि सामान्य, संख्यादि गुण तथा स्थान, समय आदि कई बातों का ज्ञान समाविष्ट रहता है । तब एक ही ज्ञान सब पदार्थों को क्यों नही जानता यह आक्षेप योग्य नही क्यों कि सब पदार्थों को जाननेवाले एक केवल ज्ञान का अस्तित्व जैन दर्शन को मान्य ही है। फिर सभी १ अघटज्ञाने घटोऽस्तीति विपर्ययः। २ घटोऽस्तीति अस्माकं जैनानामिष्टमेव । ३ घटज्ञानेन वा इति । ४ अघटज्ञानेन । ५ अघटज्ञानेन घटोऽस्तीति विपर्यये । ६ यथा प्रदीपादिना प्रकाश्यवस्तुनः प्रकाशः निश्चीयते । ७ प्रदीपः घटप्रकाशकः प्रदीपः पटप्रकाशकः इति नियमो नास्ति । ८ ज्ञानं घटविषयं वा पटविषयं वा इति विशेषणमन्तरेण । ९ घटज्ञानेन घट एव गृह्यते पटज्ञानेन पट एव गृह्यते इति नियमाभावः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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