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________________ वेदप्रामाण्यनिषेधः अनन्तरं तु वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः । प्रतिमन्वन्तरं चैव श्रुतिरन्या विधीयते ॥ इति वचनादिति चेन्न । महेश्वरादीनां सर्वशत्वाभावस्य प्रागेव प्रतिपादितत्वेन तेषामतीन्द्रियार्थेष्वाप्तत्वासंभवात् । तथा न वेदाःप्रमाणं बाधितविषयत्वात् उन्मत्तवाक्यवत् । ननु वेदस्य बाधितविषयत्वमसिद्धमिति चेन्न । ' आत्मनः आकाशः संभूतः' इत्यादीनां नैयायिकवैशेषिकैर्वाधितत्वात्। विश्वतश्चक्षुरित्यादीनामदे॒तिभिर्बाधितत्वात् । उभयेषां मीमांसकैर्बाधितत्वात्। 'अलावूनि मजन्ति, ग्रावाणः प्लवन्ते, अन्धो मणिमविन्धत् तमनगुलिरावयत्, उत्ताना वै देवगवा वहन्ती'त्यादीनां सर्वयौक्तिकैर्बाधितत्वात्। सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमि विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद् दशाङ्गुलम् ॥ (ऋग्वेद १०-९०-१) इत्येतद्वाक्यस्य अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। स वेत्ति विश्वं न हि तस्य वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद् ३-१९) नैयायिक मतानुसार तो वेद सर्वज्ञ-ईश्वरप्रणीत हैं ? कहा भी है - 'तदनन्तर ईश्वर के मुखों से वेद निकले । इस प्रकार प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्नभिन्न वेद की उत्पत्ति होती है। ' किन्तु ईश्वर सर्वज्ञ-मुक्त नही हो सकता यह पहले विस्तार से बतलाया है अतः ईश्वरप्रणीत होने पर भी वेद प्रमाण नही हो सकते । वेद अप्रमाण होने का एक कारण यह भी है कि उस का कथन प्रमाणबाधित है। वेदवाक्यों को वैदिक दर्शन ही किस प्रकार बाधित समझते हैं यह पहले (परिच्छेद ३१ में ) स्पष्ट किया है। वेदवाक्यों में परस्पर विरोध भी है, जैसे कि - " उस पुरुष के हजार सिर थे, हजार आंखें थी, हजार पैर थे, वह भमि को सब ओर से घेर कर दस अंगुल अधिक रहा' यह वाक्य है तथा इस के विरोध में ' अग्रणी महान् पुरुष वह है जिस के हाथपैर नही हैं किन्तु १ सृष्टयनन्तरम् । २ कालमान विशेषः । ३ आप्तस्तु यथार्थोपदेष्टा पुरुषः ।। ४ वेदान्तिभिः। ५ बाधकः श्लोकः । ६ वेगवान्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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