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वेदप्रामाण्यनिषेधः
तत्र सौगतैः कर्तुरङ्गीकरणात् पौरुषेयत्वेनाप्रामाण्यमिति चेत् तर्हि वेदेऽपि सौगतैः कर्तुरङ्गीकरणात् पौरुषेयत्वेन अप्रामाण्यमस्त्वविशेषात् । अथर कर्तुरभावाद् वादिनोऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वमिति चेत् कुतः कर्तुरभावो निश्चीयते । अस्मादनुमाना दिति चेन्न । इतराश्रयप्रसंगात् । वेदे वादिनः कर्तुरभावनिश्चये वादिनोऽस्मर्य माणकर्तृत्वसिद्धिः वादिनोऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वसिद्धौ वेदे वादिनः कर्तुरभावनिश्चय इति । अथ वेदस्य प्रामाण्योपपत्या कर्तुरभावो निश्चीयते इति चेन्न । अत्रापीतरेतराश्रयापत्तेः। वेदस्य कर्तुरभावनिश्चये प्रामाण्योपपत्तिः प्रामाण्योपपत्त्या कर्तुरभावनिश्चय इति । सर्वज्ञप्रणीतत्वेनापि प्रामाण्योपपत्तेश्च । सर्वज्ञो नास्तीति चेन्न । तस्य प्रागेव सद्भावसमर्थनात् ।।
तस्माद् वादिनोऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वं हेतुर्न भवति । नापि प्रतिवाको पुरुषकृत मानते हैं अतः वह अप्रमाण है तो उत्तर में कहा जा सकता है कि बौद्ध लोग वेद को भी पुरुषकृत मानते हैं अतः वेद भी अप्रमाण होंगे -- इन दोनों में कोई विशेष भेद नहीं हैं।
वेद का कर्ता ही नही है अतः उस का स्मरण नही हो सकता ऐसा कहें तो यह परस्पराश्रय होगा -- पहले आपने कहा कि स्मरण नही होता इस लिए कर्ता नही है तथा अब कहते हैं कि कर्ता नही है इस लिए स्मरण नही होता। अतः इस को सिद्ध करने के लिए कोई स्वतन्त्र प्रमाण चाहिए। वेद प्रमाणभूत हैं अतः कर्ता से रहित हैं यह कथन भी इसी प्रकार परस्पराश्रित है - पहले कहा है कि वेद अपौरुघय हैं इस लिए प्रमाण हैं तथा अब कहते हैं कि वेद प्रमाण हैं अतः अपौरुषेय हैं । तथा हमने पहले स्पष्ट किया ही है कि आगम सर्वज्ञप्रणीत होने से प्रमाणभूत होते हैं - प्रमाण होने के लिए अपौरुषेय होना जरूरी नही।
दूसरी बात यह है कि वेदके कर्ता का स्मरण नही है यह
१ अपौरुषेयो वेदः अनवच्छिन्नसंप्रदायत्वे सत्यस्मर्यमाण कर्तृकत्वात् । २ अस्मयमाणकर्तृकत्वम् । ३ बौद्धः वेदस्य कर्तृन् अष्टकइत्यनुमानात् । पुरुषान् वदति आदिशब्देन जनः वेदस्य कर्तारं कालासुरं वदति नैयायिकः ईश्वरं वदति । ४ नैयायिकादिभिः ।
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