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________________ ७२ विश्वतत्त्वप्रकाशः [ २८. वेदस्यापौरुषेयत्वनिरासः । ] यदप्यनूद्य प्रत्यवोचत्'१ - अथ सर्वशप्रणीतागमाभावेऽपि अपौरुषेयागमसद्भावात् स एव जीवस्थानाद्यनन्तत्वमावेदयतीति चेन, आगमस्यापोरुपेयत्वाभावात्, तथा हि वेदवाक्यानि पौरुषेयाणि वाक्यत्वात् कादम्बरीवाक्यवदिति, तत् तथैव । आगमस्य सर्वज्ञप्रणीतत्वेन पौरुषेयत्वाभ्युपगमात् । [ २८ अपौरुषेयो वेदः अनवच्छिन्न संप्रदायत्वे सत्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वात् आकाशवदित्य पौरुषेयत्वसिद्धिरिति चेन्न । हेतोर्विशेष्यासिद्धत्वात्' । तथाहि । अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं वादिनः प्रतिवादिनः सर्वस्य वा । वादिनश्चेत् कर्तुरनुपलब्धेरभावाद वा । आद्यपक्षे पिटकत्रयेऽपि वादिनः कर्तुरनुपलब्धेर स्मर्यमाणकर्तृकत्व सद्भावेना पौरुषेयत्वात् तस्यापि प्रामाण्यं प्रसज्यते । ततस्तदुक्तानुष्टानेऽपि मीमांसकाः प्रवर्तेरन् । अथ २८. वेद अपौरुषेयत्वका निरास - कादम्बरी आदि के वाक्यों के समान सभी वाक्य पुरुषकृत होते हैं अतः वेदवाक्य भी पुरुषकृत हैं यह चार्वाकों का अनुमान जैन दार्शनिकों को भी मान्य है जैनदर्शन को नान्य आगम सर्वज्ञप्रणीत हैं अतः वे पुरुषकृत ही हैं 1 वेद के अपौरुषेय होने में मीमांसकों द्वारा प्रस्तुत किया गया अनुमान इस प्रकार है - वेद के अध्ययन की परम्परा अविच्छिन्न है किन्तु उस के कर्ता कौन हैं इस का किसी को स्मरण नहीं है अतः आकाश आदि के समान वेद का भी कोई कर्ता नही है (यदि कोई कर्ता होता तो किसी को उस का स्मरण होता ) | किन्तु यह अनुमान सदोष है । कर्ता का स्मरण नहीं है अतः कर्ता ही नही हैं यह कथन ठीक नही । उदाहरणार्थ, मीमांसकों को इस का स्मरण नहीं है कि पिटकत्रय के कर्ता कौन थे। फिर पिटकत्रय को भी अपारुषेय और प्रमाणभूत क्यों नही माना जाता ? यदि कहें कि बौद्ध लोग पिटकत्रय Jain Education International १ चार्वाको वदति। २ अस्मर्यमाणकर्तृत्वं विशेष्यम् । ३ मीमांसकस्य । ४ बौद्धादेः। ५ उभयवादिप्रतिवादिनोर्वा । ६ अस्मर्यमाणकर्तृत्वम् । ७ केवलमभावाद् वा अस्मर्यमाकम् । ८ पिटकन्यस्यापि । ९ पिटकत्रये : १० पिटकत्रये वेदेऽपि अस्मर्यमाण कर्तृत्वं समानम् । ११ मीमांसकः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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