SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ विश्वतत्त्वप्रकाशः [१६दिति हेतुः स्वरूपासिद्ध एव स्यात् । विपक्षग्रहणसंभवे वा कस्याप्रामाण्यं प्रसाध्येत । न कस्यापि । प्राभाकरपक्षेऽप्यसिद्धो हेतुः। कथमिति चेत् व्यावृत्तिर्नाम अभावः, रहितत्वमपि प्रतिषेध एव । तथा च प्राभाकरपक्षे अभाव प्रतियोगिकप्रतिषेधाभावात् स्वरूपासिद्धो हेत्वाभासः स्यात् । विपक्षे व्यावृत्तिरहितत्वमपि विपक्षस्वरूपमात्रमेव । प्रकृतेरे तस्याभावाच हेतोः स्वरूपासिद्धत्वम् । ततः केवलान्वय्यप्यनुमानं प्रमाणं भवत्येव व्याप्तिमत्पक्षधर्मत्वात् धूमानुमानवत् । अथ विपक्षे बाधकप्रमाणाभावादप्रयोजको हेतुरिति चेन्न । विपक्षे बाधको नाम हेतोविपक्षे अप्रवृत्तिनिश्चायकः । तथा च अत्र विपक्षानुपलब्धेरेव हेतोर्विपक्षे अप्रवृत्तिनिश्चीयत इति कथं विपक्षे बाधकप्रमाणाभावः यतोऽप्रयोजनको हेतुः६ स्यात् । अपि तु नैव स्यात् । तस्मानिर्दुष्टादेतदनुमानात् शिष्टानुशिष्टविशिष्टानां दृष्टेष्टसिद्धिर्भवत्येव । अनुमान में विपक्ष का अस्तित्व ही नही होता अत: विपक्ष में व्यावृत्ति नही यह कहना सम्भव नही है। इस लिए केवलान्वयी अनुमान को भी प्रमाण मानना चाहिये । प्राभाकर मीमांसक भी केवलान्वयी अनुमानको अप्रमाण नही मान सकते । उन के मत में अभाव का तात्पर्य दसरे किसी भाव से होता है ( " यहां घट नही है इस का तात्पर्य — यहां सिर्फ जमीन है ' इस भावात्मक ज्ञान से होता है), अतः हेतु की विपक्ष में व्य वृत्ति नही है यह कहने का तात्पर्य विपक्ष विद्यमान है यह होगा किन्तु केवलान्वयी अनुमान में विपक्ष का अस्तित्व ही नही होता । अतः विपक्ष में व्यावृत्ति नही होना यह आक्षेप यहां उचित नही है। अनुमान के प्रमाण होने के लिये दो आवश्यक बातें हैं -- व्याप्ति सत्य हो और व्याप्ति से युक्त धर्म पक्ष में विद्यमान हों । ये दोनों बातें केवलान्वबी अनुमान में होती हैं अतः वह प्रमाण है । विपक्ष का यदि अस्तित्व ही नही है तो विपक्ष में बाधक प्रमाण होना चाहिये यह कहने में कोई सार नही रहता। १ तन्मते भावान्तरग्राहकः अभावः इति धूमाग्न्योरभावः तस्य प्रतियोगी हृदरहितखाभावात् । २ एवं सति विपक्षे व्यावृत्तिसद्भावनिश्चयात् । ३ केवलान्वयिनि हेतौ । ४ केवलान्वयी। ५ केवलान्वयिनि हेतौ। ६ अनेकत्वादयं हेतुः। ७ वीतः सदसद्वर्गः एकज्ञानालम्बनः अनेकत्वात् इति केवलान्वय्यनुमानात। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy