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सर्वज्ञसिद्धिः स्यैव प्रसाध्यत्वात् । तश्च न प्रत्यक्षेण वाध्यते । ततो न कालात्ययापदिष्टत्वमस्मत्पक्षेऽपि समानम् । अपितु स्वपक्षोक्तदोषमपरिहृत्य परपक्षेऽपि' साम्यमापादयतस्तवैव मतानुशा नाम निग्रहःप्रसज्यते। किं च प्रत्यनुमानेन प्रत्यवस्थानं प्रकरणसमा जातिरिति प्रत्यनुमानबाधावचनमसद्दूषणमेव न तु सदुषणम् । ततः प्रत्यनुमानं प्राक्तनानुमानस्य' न किंचित् कर्तुं शक्नोतीति निर्दुष्टं प्राक्तनमनुमानम् । [१६. केवलान्वयिनः अनुमानस्य प्रामाण्यम् ।]
ननु तथापीदमनुमानं केवलान्वयित्वेन अप्रमाणं कथं सर्वशमावेदयति । तथा हि । केवलान्वय्यनुमानं प्रमाणं न भवति विपक्षाद् व्यावृत्तिरहितत्वात् अनैकान्तिकवदिति चेन्न । हेतोरसिद्धत्वात् । कुत इति चेत् विपक्षग्रहणव्यावृत्तिस्मरणयोरभावे विपक्षे व्यावृत्तिरहितत्वस्य ज्ञातुमशक्यत्वादशातासिद्धो हेत्वाभासः। विपक्षग्रहणव्यावृत्तिस्मरणयोः सद्भावें वा विपक्षे व्यावृत्तिसद्भावनिश्चयात् विपक्षे व्यावृत्तिरहितत्वास्पर्श तथा शब्द ये किसी एक ही ज्ञान के विषय नही होते ( एक ही क्षण में इन पांचों का एक ही व्यक्ति को ज्ञान नही होता ) यह आक्षेप भी योग्य नही - हम जैसे अल्पज्ञों के विषय में यह सत्य होने पर भी सभी व्यक्तियों के लिये नियामक नही है। अत: किसी एक व्यक्ति को समस्त पदार्थों का ज्ञान होता है यह साध्य निर्बाध रूप से स्पष्ट होता है।
१६. केवलान्वयी अनुमानका प्रामाण्य-सर्वज्ञ के अस्तित्व का साधक उपर्युक्त अनुमान केवलान्वयी है और केवलान्वयी अनुमान प्रमाण नही होता क्यों कि उस में विपक्ष से व्यावृत्ति होना सम्भव नही ऐसा एक आक्षेप है। अनेकान्तिक हेत्वाभास में भी यही दोष होता है - वह विपक्ष से व्यावृत्त नही होता। किन्तु यह आक्षेप योग्य नहीं क्यों कि - विक्षप में व्यावृत्ति नही है', यह कहने के लिए विपक्ष का ज्ञान होना और उस में व्यावृत्ति का ज्ञान होना आवश्यक है। केवलान्वयी
१ जैनपक्षे । २ सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनः अनेकत्वादिति । ३ यस्तु अनेकः स एकज्ञानालम्बनः यथा पञ्चाङ्गुलम् इति केवलान्वयी हेतुः। ४ विपक्षग्रहणं च व्यावृत्तिस्मरणं च तयोरभावे केवलान्वयिनि हेतो विपक्षे व्यावृत्तिरहितत्वं ज्ञातुमशक्यम् । केवलाबयिनि हेतौ तु विपक्षो नास्त्येव । ५ केवलान्वयिनि हेतो। वि.त.३
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