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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [१४हेतुस्तत्सहितपुरुषत्वं साधनं पुरुषत्वमात्रं लिङ्गमिति वा व्यचकल्पामः' । तत्र प्रथमपक्षे विरुद्धो हेतुः। रागद्वेषाज्ञानरहितपुरुषस्य भवदभिमतसाध्यविपरीतप्रसाधकत्वात् । द्वितीयपक्षे असिद्धो हेतुः। विवादाध्यासिते पुरुषे रागद्वेषाशानसहितत्वाभावात् । अयं तदभावं केन निरचैषुभवन्त' इत्यसावप्राक्षीत् । तदुच्यते । रागद्वेषाज्ञानानि क्वचिनिःशेषमपगच्छन्ति, तरतमभावेन हीयमानत्वात् । यत्तरतमभावेन हीयमानं तत् क्वचिन्निःशेषमपगच्छति, यथा हेमन्यवलोहम्। तरतमभावेन हीय. मानानि चेमानि रागद्वेषाज्ञानानि तस्मात् क्वचिनिःशेषमपगच्छन्तीत्यनुमानान्निरचैष्मः। वीतः पुमान् रागद्वेषाज्ञानरहितः परमप्रकृष्टज्ञानवैराग्यवत्वात्, व्यतिरेके रथ्यापुरुषवदिति च वावद्यामहे । तदपि कुतो यूयमसर्वज्ञ कहा जाता है वह ) पुरुष भी सर्वज्ञ नहीं है। किन्तु यह अनुमान योग्य नही है। पुरुषों में सब समान नही होते-कोई पुरुष राग, द्वेष तथा अज्ञान से सहित होते हैं, कोई पुरुष राग, द्वेष तथा अज्ञान से रहित होते हैं । हम जिन्हें सर्वज्ञ कहते हैं उन में राग, द्वेष तथा अज्ञान का अभाव है । अत: सिर्फ पुरुष होने से उनके सर्वज्ञ होने का निषेध नही होता । इस पुरुष में राग, द्वेष तथा अज्ञान का अभाव है यह विधान भी निराधार नही - इस का अनुमान से समर्थन होता है। राग, द्वेष तथा अज्ञान तरतमभाव से पाये जाते हैं - कहीं अधिक होते हैं तथा कहीं कम होते हैं-अतः किसी पुरुष में उन का पूर्ण अभाव होता है। उदाहरणार्थ सुवर्ण में कहीं अधिक मल पाया जाता हैं, कहीं कम मल पाया जाता है और कहीं पूर्णतः निर्मल सुवर्ण भी होता है । इसी प्रकार राग, द्वेष तथा अज्ञान भी कहीं अधिक होते हैं, कहीं कम होते हैं तथा कहीं उन का पूर्ण अभाव भी होता है। दूसरा अनमान यह है कि इस पुरुष में ज्ञान और वैराग्य का परम उत्कर्ष हुआ है अत: यह सवज्ञ है | ज्ञान और वैराग्य के परम उत्कर्ष का भी १ विकल्पान् कुर्महे स्म वयं जैन।। २ सर्वज्ञप्रसाधकत्वात् । ३ सर्वज्ञत्वेनाङ्गीकृते। ४ मीमांसकः। ५ निश्चयं कुर्वन्ति स्म। ६ किटिकादि । ७ वयं जैनाः। ८ यः रागद्वेषाज्ञानरहितो न भवति स परमप्रकर्षज्ञानवान् न भवति यथा रथ्यापुरुषः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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