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________________ - ९ ] १९ पटवत् जीवस्य द्रव्यत्वमेव साधयतीति । द्वितीयपक्षे असिद्धो हेतुः । आवयोः समवायाभावेन समवेतत्वानङ्गीकारात् । अङ्गीकारे वा परमत. प्रवेशः स्यात् । तृतीयपक्षेऽप्यसिद्धो हेत्वाभासः। जीवस्य देहात्मकत्वाभावे चेतनत्वादिहेतूनां प्रागेव निरूपणात् । तस्मान्न देहगुणो जीवः बाह्येन्द्रियाग्राह्यत्वात् अयावद्द्रव्यभावित्वात्रे व्यतिरेके शरीररूपवत् । कायो वा न चैतन्यगुणवान् अचेतनत्वात् जडत्वात् जन्यत्वात् रूपादिमत्वात् अनित्यत्वात् सावयवत्वात् बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात् पटवदिति प्रतिपक्षसिद्धिः । एवं च सति देहात्मिका देहकार्या देहस्य च गुणो मतिः । मतत्रयमिहाश्रित्य जीवाभावोऽभिधीयते ॥ > इत्येतन्नोपपनीपद्यत एव । [ ९. पुनर्भवसमर्थनम् । ] यदप्यन्यत् प्रत्यतिष्ठिपत् तस्मात् पृथिव्यप्तेजोवायुरिति चत्वार्येव कायाकारपरिणतेऽभ्यस्तेभ्यश्चैतन्यं पिटोदकगुडाधातकी तवानि, होता है । अतः जीव शरीर से संयुक्त है ऐसा कहें तो जीव और शरीर ये दो द्रव्य मानने होंगे जो चावकों को इष्ट नही है । जैनों के समान चार्वाक भी समवाय सम्बन्ध नही मानते अतः जीव शरीर से समवेत है यह कहना भी उनके लिये योग्य नही । जीव शरीरात्मक नही है यह पहले स्पष्ट किया है । इस प्रकार जीव शरीर का गुण नही है क्यों कि वह बाह्य इन्द्रियों से ज्ञात नहीं होता और सर्वदा शरीर के साथ नहीं रहता । ( जो गुग होता है वह सर्वदा द्रव्य के साथ रहता है - जैसे शरीर का रूप सर्वदा शरीर में रहता है । ) इस प्रकार जीव के विषय में चार्वाक आचार्यों की कल्पनाओं का निरास हुआ । - चार्वाक दर्शन-विचारः " Jain Education International - ९. पुनर्भवका समर्थन — जीव का अनादि - अनन्त स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट होने पर पृथिवी आदि भूतों के शरीर रूप में परिणत होने पर चैतन्य उत्पन्न होता है, गर्भ से पहले तथा मरण के बाद चैतन्य का अस्तित्व नही होता, पूर्वजन्म के अदृष्ट के फल की कल्पना निर्मूल है १ शरीरपटयोः संयुक्तत्वम् । २ जैनचार्वाकयोः । ३ न यावद्द्रव्यभावित्वात् अयात्रद्द्रव्यभावित्वात् गुणस्तु यात्रद्रव्यभावी भवति । ४ यस्तु देहगुणो भवति स बाह्येन्द्रियग्राह्यो न भवति चेतनो न भवति यथा शरीरे रूपम् । गुणो न चैतन्यमेत्र गुणो यस्य सः । ६ न संभवति । ५ यथा पटः चैतन्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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