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________________ - ४ ] चार्वाक दर्शन-विचारः - ( कर्ता यः कर्मणां भोक्ता तत्फलानां स एव हि । " ( स्वरूपसंबोधन लो० १० ) इत्यभिधानात् । तस्मात् स्तुतिपूजादयो नादृष्टप्रभवाः स्तुतिपूजादित्वात् शिलादीनां स्तुतिपूजादिवत्' । वीतं चित्र' नादृष्टप्रभवं विचित्रत्वात् पाषाणादिवैचित्र्यवत् । इति लोकायत' मतसिद्धिः ॥ [ ४. उत्तरपक्षे जीवानित्यतानिषेधः ॥ ] अत्र प्रतिविधीयते । ये तावदुक्ता जीवस्य कादाचित्कत्वे प्रयोगास्ते तावद् विचार्यते । तत्र प्रत्यक्षैकप्रमाणवादिनश्चार्वाकस्यानुमानप्रामाण्यासंपादित अदृष्ट और उस अदृष्ट के फल का उपभोग इनकी कल्पना योग्य नही है । यदि अदृष्ट नही हो तो कुछ श्रीमान होते हैं, कुछ दरिद्र होते हैं, कुछ स्तुत्य और कुछ निन्द्य होते हैं, कुछ आदरणीय और कुछ तिरस्करणीय होते हैं इस भेद का क्या कारण है यह आक्षेप भी योग्य नही । पत्थरों के कोई अदृष्ट नही होता फिर भी उन में यह सब भेद पाया जाता है । ( कोई पत्थर देव प्रतिमा के रूप में पूजा जाता है, कोई वैसे ही पड़ा रहता है । जैसे पत्थरों में यह भेद स्वाभाविक है वैसे ही जीवों में भी समझना चाहिये । ) पत्थरों में पाया जानेवाला भेद भी उनमें आश्रित जीवों के अदृष्ट के कारण ही होता है यह कहना भी योग्य नही । अदृष्ट का उपार्जन जीव करे और उसका फल पत्थर को प्राप्त हो यह कथन दोषयुक्त है क्यों कि ' जो कर्म करता है वही उस के फल को भोगता है ' यह आपका सिद्धान्त है । अतः अदृष्ट के आधार से जीव के पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की कल्पना योग्य नहीं है । इस प्रकार चार्वाक मत का पूर्वपक्ष है । ४. अब जैन दर्शन के अनुसार इस पूर्वपक्ष को उत्तर देते हैं। चार्वाक मत में सिर्फ प्रत्यक्ष प्रमाण माना है अतः अनुमान के द्वारा वे जीव की अनित्यता सिद्ध करें यह योग्य नहीं । व्यवहार से अनुमान को प्रमाण मान कर यह युक्तिवाद किया है ऐसा कहा जा सकता है किन्तु Jain Education International १ यथा शिलादीनां स्तुतिपूजादिकं अदृष्टप्रभवं न । दुःखिनः इति । अदृष्टप्रभवं न । २ केचित् सुखिनः केचित् ३ यथा पाषाणा दिवैचित्र्यं अदृष्टप्रभवं न तथा अन्यत्रापि वैचित्र्यम् ४ चार्वाकमत । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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