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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [१ सदिति विशेषणमपि सर्वदा सवं विवक्षितं. कदाचित् सत्वं वा विवक्षितम् । प्रथमपक्षे असिद्धत्वं सर्वदा सत्त्वस्य साध्यसमत्वात् । द्वितीयपक्षेविरुद्धत्वं कदाचित् सत्त्वस्य सर्वदास्तित्वविपरीतप्रसाधकत्वात् । अथ' जीवः सर्वदास्ति सदकार्यत्वात् पृथ्वीवदिति चेन्न ३ । अस्यापि तद्दोषेणैव दुष्टत्वात् । अथ जीवः सर्वदास्ति विभुत्वात् आकाशवदिति चेत् न । हेतोः प्रतिवाद्यसिद्धत्वात् । अथ जीवः सर्वदास्ति अमूर्तत्वात् आकाशवदिति चेत् न । हेतोः क्रियाभिर्व्यभिचारात् । ननु तत्परिहारार्थममूर्तद्रव्यत्वादित्युच्यते, तर्हि चार्वाकमते जीवस्य पृथगद्रव्यत्वाभावात् प्रतिवाद्यसिद्धो हेत्वाभासः। अथ जीवः सर्वदास्ति निरवयवत्वात् परमाणुवदिति चेन्न । पूर्ववत् क्रियाभिर्व्यभिचारात् । तत्परिहारार्थ निरवयवद्रव्यत्वादित्युक्ते द्रव्यत्वस्य पूर्ववदसिद्धत्वाच्च । अथ जीवः सर्वदास्ति चेतनत्वात्, का ही ज्ञान होता है। अतः अनादि-अनन्त जीव का ज्ञान उस से नहीं हो सकता। अनुमान से भी यह ज्ञान होना सम्भव नहीं। जीव पृथ्वी के समान सत्-अकारण है ( विद्यमान है और किसी कारण से उत्पन्न नही हुआ है) इस लिये जीवका सर्वदा अस्तित्व रहता है- यह अनुमान योग्य नही क्यों कि चार्वाक मत से जीव अकारण नही है- वह शरीर के आकार में परिणत चार भूतोंसे ही उत्पन्न होता है। दूसरी बात यह है कि यहां जीवका अस्तित्व सिद्ध करना है और जीव का अस्तित्व ही उस का हेतु बतलाया है यह योग्य नही। इसी प्रकार जीव सत्-अकार्य है अतः सर्वदा विद्यमान रहता है यह अनुमान भी दोषयुक्त समझना चाहिये। जीव आकाश के समान व्यापक है अतः सर्वदा विद्यमान रहता है यह अनुमान भी योग्य नही, क्यों कि चार्वाक दर्शन में जीव का व्यापक होना स्वीकार नही किया है। जीव आकाश के समान अमूर्त तथा निरवयव है अतः सर्वदा विद्यमान रहता है यह अनुमान भी योग्य नहीं क्यों कि क्रिया अमूर्त तथा निरवयव होने पर भी सर्वदा विद्यमान नहीं रहती। जीव चेतन है अतः सर्वदा विद्यमान रहता है- जो सर्वदा विद्यमान नही १ विशेषणस्य असिद्धत्वं हेतोः। २ जीवास्तित्ववादी। ३ चार्वाकः । ४ पूर्वोक्तहेतुदोषेणा ५ जीवो विभुर्वर्तते इति प्रतिवाहिना नाङ्गीक्रियते अतः प्रतिवाद्यसिद्धः। ६ क्रिया सर्वदा नास्ति अमूर्तत्वात् इति व्यभिचारः, क्रिया अमूर्तास्ति परंतु सर्वदा मास्ति। ७ क्रिया तु अमूर्ता वर्तते परंतु द्रव्यं न। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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