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विषयक ग्रन्थ चार हैं- प्रमाणवादार्थ (सं. १७५१), जैन सप्तपदार्थी (सं. १७५७), जैन तर्कभाषा (सं. १७५९) तथा स्याद्वादमुक्तावली | यशस्वत् सागर की अन्य रचनाएं इस प्रकार है- विचारषत्रिंशिकावचूरि (सं. १७२१), भावसप्ततिका ( सं. १७४० ), स्तवनरत्न, ग्रहलाघववार्तिक (सं. १७६० ), तथा यशोराजिराजपद्धति |
प्रस्तावना
८८. नरेन्द्रसेन — ये धर्मसेन के शिष्य थे तथा इन का समय सत्रहवीं सदी में अनुमानित किया गया है । इन की रचना प्रमाणप्रमेय कलिका गद्य में है तथा ४८ पृष्ठों में समाप्त हुई है ।
[ प्रकाशन - सं. पं. दरबारीलाल, माणिकचंद्र ग्रंथमाला, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १९६२ ]
८९. विमलदास —— सप्तभंगीतरंगिणी नामक एक ही ग्रंथ से विमलदास ने जैन तर्कसाहित्य में अच्छा सम्मान प्राप्त किया है । वे अनन्तसेन के शिष्य थे । तथा वीरग्राम के निवासी थे । उन्हों ने इस ग्रंथ की रचना वैशाख शु. ८ बृहस्पतिवार, लवंग संवत्सर के दिन तंजानगर (तंजोर) में पूर्ण की थी । यह समय सुत्रहवीं सदी में अनुमानित किया गया है ।
सप्तभंगीतरंगिणी संस्कृत गद्य में है तथा इस का विस्तार ८०० लोकों जितना है । समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानंद, माणिक्यनंदि तथा प्रभाचन्द्र के ग्रंथों के उचित उद्धरण दे कर लेखक ने सरल भाषा में स्याद्वाद के अस्ति, नास्ति आदि सात वाक्यों का उपयोग व महत्त्व समझाया है। साथ ही अनेकांतवाद में प्रतिपक्षियों द्वारा दिये गये संकर, व्यतिकर, असंभव, विरोध आदि दोषों का परिहार भी किया है । अन्त में सांख्य, बौद्ध, मीमांसक तथा नैयायिक मतों में भी अप्रत्यक्ष रूप से सापेक्षवाद का कैसे अवलम्ब किया गया है यह भी लेखक ने स्पष्ट किया है ।
[ प्रकाशन्द -१ हिंदी अनुवाद सहित - सं. ठाकुरप्रसाद शर्मा, रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई, १९०४ २ शास्त्रमुक्तावली, कांजी-. चरम् १९०९]
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