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________________ ८० [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अछिन्नधारया भेदबोधनं भावयेत् सुधीः ।। शुद्धचिद्रूपसंप्राप्त्यै सर्वशास्त्रविशारदः ॥ १३ ॥ अर्थः-जो महानुभाव समस्त शास्त्रोंमें विशारद है और शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिका अभिलाषी है उसे चाहिये कि वह एकाग्र हो भेदविज्ञानकी ही भावना करे-भेदविज्ञानसे अतिरिक्त किसी पदार्थमें ध्यान न लगाये ।। १३ ।। संवरोऽनिर्जरा साक्षात् जायते स्वात्मबोधनात् । तभेदज्ञानतस्तस्मात्तच्च भाव्यं मुमुक्षुणा ॥ १४ ॥ अर्थः-अपने-आत्माके ज्ञानसे संवर और निर्जराकी प्राप्ति होती है । आत्माका ज्ञान भेदविज्ञानसे होता है, इसलिये मोक्षाभिलाषीको चाहिये कि वह भेदविज्ञान की ही भावना करे । भावार्थ:--संवर ( कर्मोके आगमनका रुक जाना ) और निर्जरा (क्रम-क्रमसे अवशिष्ट कर्मोका क्षय होना )की प्राप्तिसे मोक्षको प्राप्ति होती है । संवर और निर्जराका लाभ आत्मज्ञानसे होता है और आत्मज्ञान भेदज्ञानसे होता है, इसलिये मोक्षाभिलाषीको चाहिये कि वह भेदविज्ञानको सबसे कार्यकारी जान उसीकी भावना करे ।। १४ ॥ लब्धा वस्तुपरीक्षा च शिल्पादि सकला कला । वह्वी शक्तिविभूतिश्च भेदज्ञप्तिन केवला ॥ १५ ॥ अर्थः-इस संसारके अंदर अनेक पदार्थों की परीक्षा करना भी सीखा । शिल्प आदि अनेक प्रकारकी कलायें भी हासिल की । बहुत सी शक्तियाँ और विभूतियाँ भी प्राप्त की; परंतु भेदविज्ञानका लाभ आज तक नहीं हुआ ।। १५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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