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________________ ३२ । [ तत्त्व ज्ञान- तरंगिणी चक्रींद्रयोः सदसि संस्थितयोः कृपास्यात्तद्भार्ययोरतिगुणान्वितयोधृणा च । । सर्वोत्तमेंद्रियसुखस्मरणेऽतिकष्टं । यस्योद्धचेतसि स तत्वविद्रां वरिष्ठः ॥१४॥ अर्थ:-जिस मनुप्यके हृदय में, सभामें सिंहासन पर विराजमान हुये चक्रवर्ती और इन्द्रके ऊपर दया है, शोभामें रतिकी तुलना करने वाली इन्द्राणी और चक्रवर्तीकी पटरानीमें धृणा है और जिसे सर्वोत्तम इन्द्रियोंके सुखोंका स्मरण होते ही अति कष्ट होता है, वह मनुष्य तत्त्वज्ञानियोंमें उत्तम तत्त्वज्ञानी कहा जाता है । .. भावार्थः - ज्ञानीपुरुष यह जानकर कि चक्रवर्ती और इन्द्र आज सिंहासन पर बैठे हैं, कल अशुभकर्मके उदयसे मर कर कुगतिमें जायेंगे और लक्ष्मी नष्ट हो जायगी, उन पर दया करता है । यद्यपि चक्रवर्ती और इन्द्रकी स्त्रियां महामनोज्ञ होती हैं, तथापि विषयसम्बन्धी सुख महानिष्ट और दुःख देने वाला है, यह जानकर वह उनको धृणाकी दृष्टिसे देखता है और उत्तमोत्तम इन्द्रियोंके सुखोंको परिणाममें दुःखदायी समझ उनका स्मरण करते ही दुःख मान लेता है ।।१४।। रम्यं वल्कलपर्णमंदिरकरीरं कांजिकं रामठं लोहं ग्रावनिषादकुश्रुतमटेद् यावन्न यात्यंबरं । सौधं कल्पतरं सुधां च तुहिनं स्वर्ण मणि पंचम जैनीवाचमहो तथेंद्रियभवं सौख्यं निजात्मोद्भवं ॥१५॥ अर्थः-जब तक मनुष्यको उत्तमोत्तम वस्त्र, महल, कल्पवृक्ष, अमृत, कपूर, सोना, मणि, पंचमस्वर, जिनेन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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