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द्वितीय अध्याय ]
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भावार्थ :- - आत्मा के साथ अनन्त वर्गणाओंका प्रतिसमय बन्ध होता रहता है, जिनको केवलीके सिवाय अन्य कोई जान - देख नहीं सकता; परन्तु शुद्धविद्रूपकी भावनासे आत्माके साथ किसी भी कर्मवर्गणाका सम्बन्ध नहीं होता || १३ ॥ तं चिद्रूपं निजात्मानं स्मर स्मर शुद्ध प्रतिक्षणं । स्मरणमात्रेण सद्यः कर्मक्षयो भवेत् ॥ १३ ॥
यस्य
अर्थ : – हे आत्मन् ! स्मरण करते ही समस्त कर्मोंके नाश करने वाले शुद्धचिद्रूपका तूं प्रतिक्षण स्मरण कर; क्योंकि शुद्धचिद्रूप और स्वात्मामें कोई भेद नहीं - दोनों एक ही हैं ।। १३॥ उत्तमं स्मरणं शुद्धचिद्रूपोऽहमितिस्मृतेः । कदापि क्वापि कस्यापि श्रुतं दृष्टं न केनचित् ॥ १४॥ अर्थ
-" मैं शुद्धचिद्रूप हूं" ऐसा स्मरण ही सर्वोत्तम स्मरण माना गया है; क्योंकि उससे उत्तम स्मरण कभी भी, कहीं भी किसी भी स्थान पर हुआ, न देखा है ।
किसीने भी न सुना और
-:
भावार्थ : - स्त्री पुत्र आदिका जो स्मरण प्रति समय इस जीवको होता हुआ, देखा व सुना गया है, उससे भी शुद्धचिद्रूपका स्मरण सर्वोत्तम स्मरण समझना चाहिये || १४।। शुद्धचिद्रपसदृश ध्येयं नैव कदाचन ।
उत्तमं क्वापि कस्यापि भूतमस्ति भविष्यति ॥ १५ ॥ अर्थ :- शुद्ध चिद्रूपके समान उत्तम और ध्येय-ध्याने योग्य पदार्थ कदाचित् कहीं न भी हुआ, न है और न होगा, ( इसलिये शुद्धचिद्रूपका ही ध्यान करना चाहिये ) || १५ | ये याता यांति यास्यति योगिनः शिवसंपदः । समासाध्यैव चिप
शुद्धमानंदमंदिरं ॥ १६॥
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