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द्वितीय अध्याय ]
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कल्पवृक्षकी, अन्य धातु स्वर्णकी अन्य पीने योग्य पदार्थ अमृतकी और अन्य रत्न आदि पदार्थ चिन्तामणि आदिकी तुलना नहीं कर सकते, उसीप्रकार अन्य पदार्थों का ध्यान शुद्धात्मा के ध्यानके समान नहीं हो सकता, इसलिये शुद्धचिद्रूपका ध्यान ही सर्वोत्तम और लाभदायक है ।। ९ ।।
निधानानां प्राप्तिर्न च सुरकुरुरुहां कामधेनोः सुधायाश्रितारत्नानामसुरसुरनराकाश गेर्शे दिराणां । खभोगानां भोगावनिभवनभुवां चाहमिंद्रादिलक्ष्म्या
न संतोषं कुर्यादिह जगति यथा शुद्धचिद्रपलब्धिः ॥ १० ॥
अर्थ : - यद्यपि अनेक प्रकारके निधान ( खजाने ), कल्पवृक्ष, कामधेनु, अमृत, चिन्तामणि रत्न, सुर, असुर, नर और विद्याधरोंके स्वामियोंकी लक्ष्मी, भोगभूमियोंमें प्राप्त इन्द्रियोंके भोग और अहमिन्द्र आदिकी लक्ष्मीकी प्राप्ति संसार में संतोषसुख प्रदान करने वाली है; परन्तु जिस प्रकारका संतोष शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिसे होता है वैसा इन किसीसे नहीं होता ।
भावार्थ : - अनेक प्रकारके निधान, कल्पवृक्ष आदि पदार्थ संसार में सर्वथा दुर्लभ हैं-बड़े भाग्य से मिलते हैं, इसलिये इनकी प्राप्ति से संतोष होता है परन्तु वैसा संतोष नहीं होता जैसा कि शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिसे होता है; क्योंकि निधान, कल्पवृक्ष आदि अनित्य हैं उनसे थोड़े कालके लिये ही संतोष हो सकता है, शुद्धचिद्ररूप नित्य है - कभी भी इसका नाश नहीं हो सकता, इसलिये इसकी प्राप्तिसे जो सुख होता है वह सदा विद्यमान रहता है ।। १० ।।
ना दुर्वणों विकणों गतनयनयुगो वामनः कुब्जको वा छिन्नम्राणः कुशब्दो विकलकरयुतो वाग्विहीनोऽपि पंगुः ।
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