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________________ १६८ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी छ आवश्यक कर्मोंके पालनेको, पश्चात् व्रतोंके धारण करनेकी और फिर संयम ग्रहण करनेको शिक्षा देनी चाहिये; परन्तु जो यति हैं-निर्ग्रथरूप धारणकर वनवासी हो गए हैं, उन्हें सबसे पहिले संयम पालनेकी और पीछे शुद्धचद्रूपके ध्यान करनेकी शिक्षा देनी चाहिए । यह क्रम ज्ञानोओंने कहा है ।। २-३ ।। संसारभीतितः पूर्वं रुचिर्मुक्तिसुखे दृढा | जायते यदि तत्प्राप्तेरुपायः सुगमोस्ति तत् ॥ ४ ॥ अर्थ :- जिन मनुष्योंको सर्वप्रथम संसारके भयसे मोक्षसुखकी प्राप्ति में रुचि दृढ़ है-जल्दी संसारके दुःखोंसे मुक्त होना चाहते हैं । उन्हें समझ लेना चाहिए कि मुक्तिकी प्राप्तिका सुगम उपाय मिल गया- - वे बहुत शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । भावार्थ:-- जब तक मोक्ष पानेकी हृदय में कामना नहीं होती - मोक्ष सुखके अनुभव करनेमें प्रेम नहीं होता, तब तक कदापि मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती और उसमें प्रेम करनेसे तो यह शीघ्र ही मिल जाता है - वे सुगमतामें बहुत जल्दी मोक्ष चले जाते हैं । अधिक काल तक उन्हें संसार में नहीं भटकना पड़ता ।। ४ ।। युगपज्जायते कर्ममोचनं तात्त्विकं सुखं । लयाच्च शुद्धचिद्रूपे निर्विकल्पस्य योगिनः ॥ ५ ॥ अर्थः - जो योगी निर्विकल्पक है— समस्त प्रकारकी आकुलताओंसे रहित हैं और शुद्धचिद्रूपमें लीन हैं उन्हें एक साथ समस्त कर्मोंका नाश और तात्त्विक सुख प्राप्त हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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