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________________ सत्रहवां अध्याय ] [ १६५ परन्तु वास्तवमें वे दोनों ही ( रागद्वेष ) दुःखस्वरूप है; क्योंकि उनसे जीवके परिणाम आकुलतामय रहते हैं; किन्तु जहां पर आकुलता न हो वही वास्तविक मुग्व है और वह सुख रागद्वेष आदिसे रहित समस्त पदार्थों के जाननेवाले महान पुरुषके ही होता है ।। १६-१७ ।। इन्द्राणां सार्वभौमानां सर्वेषां भावनेशिनां । विकल्पसाधनैः खार्थाकुलत्वात्सुखं कुतः ॥ १८ ॥ तात्त्विकं च सुखं तेषां ये मन्यते ब्रुवंति च । एवं तेपामहं मन्ये महती भ्रांतिरुद्गता ॥ १९ ॥ अर्थः - इन्द्र, चक्रवर्ती और भवनवासी देवोंके स्वामियोंके जितने इन्द्रियोंके विषय होते हैं वे विकल्पोंसे होते हैं । ( अपने अर्थोके सिद्ध करने में उन्हें नाना प्रकारके विकल्प करने पड़ते हैं और ) उन विकल्पोंसे सदा चित्त आकुलतामय रहता है, इसलिए वास्तविक सुख उन्हें कभी प्राप्त नहीं होता; जो पुरुष, उनके मुखको वास्तविक सुख समझते हैं और उस सुखकी वास्तविक सुख में गणना करते हैं; मैं ( ग्रन्थकार ) समझता हूँ उनकी यह भारी भूल है । वह सुख कभी वास्तविक मुख नहीं हो सकता ।। १८-१९ !। विमुच्य रागादि निजं तु निर्जने पदे स्थिरतानां सुखमत्र योगिनां । विवेकिनां शुद्धचिदात्मचेतसां विदां यथा स्यान्न हि कस्यचित्तथा ॥ २० ॥ अर्थः - इसलिए जो योगिगण बाह्य-अभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रहका त्यागकर निरूपद्रव एकान्त स्थानमें निवास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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