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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी निद्रव्यं स्ववशं निजस्थमभयं नित्यं निरीहं शुभं निद्वंदं निरुपद्रवं निरुपम निर्वधमूहातिगं । उत्कृष्टं शिवहेत्वदोषममलं पद् दुर्लभं केवलं स्वात्मोत्थं सुखमीदृशं च स्वभवं तस्माद्विरुद्धं भवेत् ॥ २ ॥
अर्थः- यह आत्मोस्थ निराकुलतामय सुख, निर्द्रव्य हैपरद्रव्योंके संपर्कसे रहित है, स्वाधीन. आत्मिक, भयोंसे रहित, नित्य, समस्त प्रकारकी इच्छाओंसे रहित, शुभ, निर्द्वद्व, सब प्रकारके उपद्रवोंसे रहित, अनुपम, कर्मबन्धोंसे रहित, तर्कवितर्कके अगोचर, उत्कृष्ट, कल्याणीका करनेवाला, निर्दोष, निर्मल और दुर्लभ है; परन्तु इन्द्रियजन्य मुख सर्वथा इसके विरुद्ध है । [ वह परद्रव्योंके सम्बन्धसे होता है, पराधीन, पर, नाना प्रकार के भयोंका करनेवाला, विनाशीक अनेक प्रकारकी इच्छा उत्पन्न करनेवाला, अशुभ, आकुलतामय, अनेक प्रकारके उपद्रवोंको खड़ा करनेवाला, महानिन्दनीक, कर्मबन्धका कारण, महानिकृष्ट, दुःख देनेवाला, अनेक प्रकारके दोष और मलोंका भंडार तथा सुलभ है 1, ( इसलिए सुखाभिलाषी जीवोंको चाहिए कि निराकुलतामय सुखकी प्राप्तिका उपाय करें) ।। २ ।।
वैराग्यं त्रिविधं निचाय हृदये हित्वा च संगं विधा श्रित्वा सद् गुरुमागमं च विमलं धृत्वा च रत्नत्रयं । त्यक्त्वान्यैः सह संगतिं च सकलं रागादिकं स्थानके स्थातव्यं निरुपद्रवेऽपि विजने स्वात्मोत्थसौख्याप्तये ॥३॥
अर्थः-जो पुरुष आत्मिक शांतिमय मुखके अभिलाषी हैं । उसे हस्तगत करना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे संसार, शरीर और भोगोंके त्यागरूप तीन प्रकारका वैराग्य धारण
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