SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी ग्रन्थोंका अभ्यास, राज्य, युद्ध, गौ, हाथी, भोजन, मित्र, स्वर्ग सवारी, इन्द्रियोंके विषय, कुधर्म और कल्पवृक्ष आदिमें वांछा होती है । भावार्थ:- -जब तक इस जीवके मोहका उदय रहता है तब तक यह पुत्र, पुत्री, स्त्री, शरीर आदि परपदार्थोंको अपनाता रहता है और उनके फंदे में फँसकर आत्मिक शुद्धचिद्रूपको सर्वथा भूला देता है; परन्तु मोहके नाश होते ही इसे अपने परायेका ज्ञान हो जाता है, इसलिये उस समय, पुत्र, धन आदि पदार्थों की ओर यह झांककर भी नहीं देखता ।। २ ।। -- किं पर्यायैर्विभावैस्तत्र हि चिदचित्तां व्यञ्जनार्थाभिधानैः रागद्वेपाप्तिबीजैर्जगति परिचितैः कारणैः संसृतेश्व । मत्वैवं त्वं चिदात्मन् परिहर सततं चिंतनं मंक्षु तेषां शुद्धे द्रव्ये चिति स्वे स्थितिमचलतयांतर्दृशा संविधेहि ॥ ३ ॥ अर्थ:- हे चिदात्मन् ! संसारमें चेतन और अचेतनकी जो अर्थ और व्यंजनपर्याय मालूम पड़ रही हैं वे सब स्वभाव नहीं विभाव हैं, निंदित हैं, रागद्वेष आदिको और संसारकी कारण हैं, ऐसा भले प्रकार निश्चय कर तू इनका विचार करना छोड़ दे और आत्मिक शुद्धचिद्रूपको अपनी अन्तर्दृष्टि से भले प्रकार पहिचान कर उसीमें निश्चलरूप से स्थिति कर । भावार्थ:- यदि कोई अपना है तो शुद्धचिद्रूप ही है शुद्ध चिद्रूपसे भिन्न कोई पदार्थ अपना नहीं, राग-द्वेष, मतिज्ञान और नरनारक आदि पर्यायोंको अपने मानना भूल है; क्योंकि ये विभावर्याय हैं स्वभाव नहीं, महानिंदित हैं । इनको अपनानेसे रागद्वेषकी उत्पत्ति होती है और संसारमें भ्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy