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चौदहवां अध्याय ।
[ १३७ संपत्तिके प्राप्त हो जाने पर हर्ष और विपत्तिके आने पर विषाद नहीं होता-वे संपत्ति और विपत्तिको समान रूपसे मानते हैं ।। १८ ।।
स्वकीयं शुद्धचिद्रूपं ये न मुंचंति सर्वदा । गच्छंतोऽप्यन्यलोकं ते सम्यगभ्यासतो न हि ॥ १९ ॥ तथा कुरु सदाभ्यासं शुद्धचिपचिंतने । संक्लेशे मरण चापि तद्विनाशं यथैति न ॥ २० ॥
अर्थः-जो महानुभाव आत्मिक शुद्धचिद्रूपका कभी त्याग नहीं करते वे यदि अन्य भवमें भी चले जाएँ तो भी उनके शुद्धचिद्रूपका अभ्यास नहीं छूटता । पहिले भवमें जैसी उनकी शुद्धरूपमें लीनता रहती है वैसी हो बनी रहती है, इसलिये हे आत्मन् ! तु शुद्धचिद्रूपके ध्यानका इस रूपसे सदा अभ्यास कर, जिससे कि भयंकर दुःख और मरणके प्राप्त हो जाने पर भी उसका विनाश न हो-वह ज्योंका त्यों बना रहे ।। १९-२० ।।
वदन्नन्यैर्हसन् गच्छन् पाठयन्नागमं पठन् । आसनं शयनं कुर्वन शोचनं रोदनं भय ॥ २१ ॥ भोजनं क्रोधलोभादि कुर्वन् कर्मवशात् सुधीः । न मुंचति क्षणार्द्ध स शुद्धचिपचिंतनं ॥ २२ ॥
अर्थः-जो पुरुष बुद्धिमान हैं-यथार्थमें शुद्धचिद्रूपके स्वरूपके जानकार हैं वे कर्मोके कंदमें फँसकर बोलते, हँसते, चलते, आगमको पढ़ाते, पढ़ते, बैठते, शोते, शोक करते, रोते, डरते, खाते, पीते और क्रोध लोभ, आदिको भी करते हुये
त. १८
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