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________________ तेरहवाँ अध्याय ! । १२७ ही संसारमें परम धर्म, मुखकी देनेवाली, उत्तम चारित्र और मोक्षका मार्ग है ।। १९-२० ।। यावबाह्यांतरान संगान न मुंचंति मुनीश्वराः । तावदायाति नो तेषां चित्स्वरूपे विशुद्धता ॥ २१ ।। अर्थ:-जब तक मुनिगण बाह्य-अभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रहका नाश नहीं कर देते, तब तक उनके चिद्रूप में विशुद्धपना नहीं आ सकता । भावार्थः-स्त्री पुत्र आदिको अपनाना वाह्य परिग्रह है और रागद्वेष आदिको अपनाना अभ्यंतर परिपह है । जब तक इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंमें ममता लगी रहती है, तब तक चिद्रूप विशुद्ध नहीं हो सकता; परन्तु ज्यों-ज्यों बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रहोंसे ममता छूटती जाती है त्यों-त्यों चिद्रूप भी विशुद्ध होता चला जाता है, इसलिये जो मुनिगण विशुद्धचिद्रूपके अभिलाषी हैं उन्हें चाहिये कि बाह्य-अभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रहोंसे सर्वथा ममता छोड़ दें ।। २१ ।। विशुद्धिनावमेवात्र श्रयंतु भवसागरे मज्जंतो निखिला भत्र्या बहुना भाषितेन किं ।। २२ ।। अर्थः-- गन्थकार कहते हैं कि-इस विषयमें विशेष कहनेसे क्या प्रयोजन ? प्रिय व्यो ! अनादि काल से आप लोग इस संसाररूपी सागर में गोता खा रहे हैं, अब आप इस विशुद्धिरूपी नौकाका आश्रय लेकर संसारसे पार होने के लिये पूर्ण उद्यम कीजिये ।। २२ ।। आदेशोऽयं सद्गुरूणां रहस्यं सिद्धांतानामेतदेवाखिलानां । कर्तव्यानां मुख्यकर्तव्यमेतत्कार्या यत्स्वे चित्स्वरूपे विशुद्धिः ॥२३॥ अर्थः---अपने चित्स्वरूपमें विशुद्धि प्राप्त करना यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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