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[ तत्वज्ञान तरंगिणी भावार्थ:- अशुभ कार्यस निवृत्ति और शुभकार्य में प्रवृत्ति करना व्यवहार चारित्र है और वह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, निष्परिग्रह ये पांच प्रकारके व्रत, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और उत्सर्ग वे पांच समितियाँ एवं वाग्गप्ति, कायगुप्ति और मनोगुप्ति ये तीन प्रकारकी गुप्तियाँ इस तरह तेरह प्रकारका है ।। १४ ।।
मूलोत्तरगुणानां यत्पालनं मुक्तये मुनेः ।
दृशा ज्ञानेन संयुक्तं तच्चारित्रं न चापरं ।। १५ ।।
अर्थ : - सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके साथ जो मूल और उत्तर गुणोंका पालन करना है वह चारित्र है अन्य नहीं तथा यही चारित्र मोक्षका कारण है ।। १५ ।।
संगं मुक्त्वा जिनाकारं धृत्वा साम्यं दृशं धियं । यः स्मरेत् शुद्धचिद्रपं वृत्तं तस्य किलोत्तमं ॥ १६ ॥
अर्थः- ( बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकार के ) परिग्रहों का सर्वथा त्यागकर, जिनमुद्रा ( नग्नमुद्रा ) समता, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका धारक होकर जो शुद्धचिद्रूपका स्मरण करता है, उसीको उत्तम चारित्र होता है ।। १६ ।।
ज्ञप्त्या दृष्टया युतं सम्यकचारित्रं तन्निरुच्यते । सतां सेव्यं जगत्पूज्यं स्वर्गादि सुख साधनं ॥ १७ ॥
अर्थः- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके साथ ही सम्यक्चारित्र सज्जनोंको आचरणीय है और वह ही समस्त संसार में पूज्य तथा स्वर्ग आदि सुखोंको प्राप्त कराने वाला है ।
भावार्थ:- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों ऐसे कारण हैं कि इनमें एक भी कम हो जाने पर मोक्ष सुख नहीं मिल सकता । यदि चाहे कि बिना सम्यग्दर्शन
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