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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी है, एवं जो इसके भीतर समस्त पदार्थोंको देखने जाननेवाला है वह मैं आत्मा हूँ ।। ५ ।। जन्म से लेकर आज तक जो भी अनुभवा है उन सबको स्मरण कर हाथकी रेखाओंके समान जो जानता देखता है वह ज्ञानावरण आदि कर्मोंसे कड़ी रीति से जकड़ा हुआ भी मैं वास्तव में शुद्धचिद्रूप ही हूँ ।। ६ ।। तीन लोक और तीनों कालोंमें विद्यमान चेतन और जड़ पदार्थोंको आगमसे श्रवणकर जो देखता जानता है वह चैतन्यरूप लक्षणका धारक मैं स्वात्मा हूँ । मुझ सरीखा अन्य कोई नहीं हो सकता । इन श्लोकोंसे आचार्य - उपाध्याय और सामान्य मुनियोंका भी शुद्धचिद्रूप पदसे ग्रहण किया है ।। ७ ।। स्वयं ग्रन्थकार भी शुद्धचिद्रूप पदसे किन-किनका ग्रहण है, इस बातको दिखाते हैं
शुद्धचिप इत्युक्त ज्ञेयाः पंचाईदादयः । अन्येऽपि तादृशाः शुद्ध शब्दस्य बहुभेदतः ॥ ८ ॥
अर्थ :- शुद्धचिद्रूप पदसे यहां पर अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और सर्व साधु इन पाँचों परमेष्ठियोंका ग्रहण है तथा इनके समान अन्य शुद्धात्मा भी शुद्धिचिद्रूप शब्दसे लिये हैं, क्योंकि शुद्ध शब्द के बहुतसे भेद हैं ।
भावार्थ:- यदि शुद्ध निश्चयनयसे कहा जाय तो सिद्धपरमेष्ठी ही शुद्धचिद्रूप हो सकते हैं, परन्तु यहाँ पर भावीनैगमनयसे मुनि आदिको भी शुद्धचिद्रूप माना है, क्योंकि आगे ये भी सिद्धस्वरूपको प्राप्त करेंगे ॥ ८ ॥
नों दृक् नो धीर्न वृतं न तप इह यतो नैव सौख्यं न शक्तिनदोषो नो गुणतो न परमपुरुषः शुद्धचिद्रूपतश्च ।
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