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________________ -८४ ] नयचक्र पर्यन्त पुद्गल द्रव्यको विषय करनेवाले अवधिज्ञानके कारणभूत स्वसंवेदनका नाम अवधिदर्शन है और उसके आवारक कर्मका नाम अवधिदर्शनावरणीय है । केवलज्ञानकी उत्पत्तिके कारणभूत स्वसंवेदनका नाम केवलदर्शन है और उसके आवारक कर्मका नाम केवलदर्शनावरणीय है । इतनी विशेषता है कि छद्मस्थोंका ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है, परन्तु केवलज्ञान केवलदर्शन के समान कालमें होता है, क्योंकि ज्ञान और दर्शन दोनों निरावरण हैं । वेदनीयकर्मकी दो प्रकृतियाँ हैं- सातावेदनीय और असातावेदनीय । दुःखका प्रतीकार करनेमें कारणभूत सामग्रीको मिलानेवाला और दुःखकी उत्पादक कर्मद्रव्यकी शक्तिका विनाश करनेवाला कर्म सातावेदनीय कहलाता है। सुख स्वभाववाले जीवको दुःख उत्पन्न करनेवाला और दुःखके प्रशमनमें कारणभूत द्रव्योंका अपसारक कर्म असातावेदनीय कहा जाता है। इस प्रकार वेदनीयकी दो ही प्रकृतियाँ हैं । मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं । जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है । आप्त, आगम और पदार्थों में जो प्रत्यय, रुचि और श्रद्धा होती है उसका नाम दर्शन है । उसको मोहित करनेवाला अर्थात् उससे विपरीत भावको उत्पन्न करनेवाला कर्म दर्शनमोहनीय कहलाता है। रागका न होना चारित्र है । उसे मोहित करनेवाला अर्थात् उससे विपरीत भावको उत्पन्न करनेवाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। इस प्रकार मोहनीय कर्मकी दो प्रकृतियाँ हैं । Jain Education International ४९ दर्शनमोहनीय कर्म बन्धकी अपेक्षा एक ही प्रकारका है। सत्त्व अवस्था में वह तीन प्रकारका हो जाता है— सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । जैसे एक ही प्रकारका कोदों चाकी में दला जानेपर एककालमें एक विशेष क्रियाके द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों इन तीन अवस्थाओं को प्राप्त होता है । उसी प्रकार सम्यक्त्वाभिमुख जीवके अनिवृत्तिरूप परिणामों के सम्बन्धसे एक प्रकार के मोहनीयका तीन प्रकारसे परिणमन हो जाता है । उत्पन्न हुए सम्यक्त्वमें शिथिलताका उत्पादक और उसकी अस्थिरताका कारणभूत कर्म सम्यक्त्व प्रकृति कहलाता है । सम्यक्त्वका सहचारी होनेसे उसे सम्यक्त्व कहा जाता है । सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप दोनों भावोंके संयोगसे उत्पन्न हुए भावका उत्पादक कर्म सम्यग्मिथ्यात्व कहलाता है । आप्त, आगम और पदार्थों में अश्रद्धाको उत्पन्न करनेवाला कर्म मिथ्यात्व कहलाता है । इस प्रकार दर्शनमोहनीय . कर्म तीन प्रकारका है । चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकारका है— कषाय वेदनीय और नोकषायवेदनीय । जिस कर्मके उदयसे जीव कषायका वेदन करता है वह कषायवेदनीय है । जिस कर्मके उदयसे जीव नोकषायका वेदन करता है वह नोकषायवेदनीय है । सुख और दुःखरूपी धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी क्षेत्रको जो जीतती है वह कषाय है। ईषत् कषायको नोकषाय कहते हैं, क्योंकि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी अपेक्षा कषायोंसे नोकषायों में अल्पपना है तथा क्षपक श्रेणीमें नोकषायोंके उदयका अभाव हो जानेके पश्चात् कषायोंके उदयका विनाश होता है । कषाय वेदनीय कर्म सोलह प्रकारका है - अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । जो क्रोध, मान, माया, लोभ सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्रका विनाश करते हैं। तथा जो अनन्त भवके अनुबन्धनरूप हैं वे अनन्तानुबन्धी कहलाते हैं । अथवा अनन्त भवोंमें जिनका अनुबन्ध चला जाता है वे अनन्तानुबन्धी हैं । ईषत् अर्थात् एक देश प्रत्याख्यानको अप्रत्याख्यान कहते हैं । अप्रत्याख्यान अर्थात् देशसंयमका आवरण करनेवाला कर्म अप्रत्याख्यानावरणीय है । प्रत्याख्यान महाव्रतको कहते हैं । उनका आवरण करनेवाला कर्म प्रत्याख्यानावरणीय है । जो सम्यक् रूपसे प्रकाशित हो वह संज्वलनकषाय है। रत्नत्रयका विरोधी न होनेसे इसे सम्यक् कहा है । नोकषाय वेदनीयकर्म नौ प्रकारका है - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा । जिस कर्मके उदयसे पुरुष विषयक अभिलाषा होती है, वह स्त्रीवेद कर्म है । जिस कर्मके उदयसे मनुष्यकी स्त्रियों में अभिलाषा होती है, वह पुरुषवेद कर्म है। जिस कर्मके उदयसे स्त्री और पुरुष उभयविषयक अभिलाषा उत्पन्न होती है, वह नपुंसकवेदनीय कर्म है । जिस कर्मके उदयसे अनेक प्रकारका परिहास उत्पन्न होता है, वह हास्य कर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवोंकी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावमें रति उत्पन्न ७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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