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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा०२०
उक्तंच
पोग्गलदवे जो पुण विभाओ कालपेरिओ होदि ।
सो णिद्धलुक्खसहिदो बंधो खलु होइ तस्सेव ॥ द्रव्यस्वभावपर्यायान्संदर्शयति
दव्वाणं खुपएसा जे जे ससहावसंठिया लोए।
ते ते पुण पज्जाया जाण तुमं दविणसम्भावं ॥२०॥ गुणस्वभावपर्यायान्संदर्शयति
अगुरु लहुगाणंता समयं समयं समुन्भवा जे वि।
दव्वाणं ते भणिया 'सहावगुणपज्जया जाण ॥२१॥ जीवद्रव्यविभावपर्यायानिर्दिशति
जं चदुगदिदेहीणं देहायारं पदेसपरिणाम। अह विग्गहगइजीवे तं दध्वविहावपज्जायं ॥२२॥
परिणमन करते हैं वह विभाव गुणपर्याय है । जैसे जीवद्रव्यमें ज्ञानगुणकी केवल ज्ञानपर्याय स्वभाव पर्याय है, किन्तु संसारदशामें उस ज्ञानगुणका जो मतिज्ञानादि रूप परिणमन कर्मों के संयोगवश हो रहा है वह विभावपर्याय है। अतः जीवके जो स्वभाव हैं कर्मोके संयोगवश वे विभाव रूप हो जाते हैं। कहा भी है
पुदगल द्रव्यमें कालके द्वारा प्रेरित जो विभावरूप परिणमन होता है वह स्निग्ध और रूक्ष गुण सहित होता है । इसीसे उसका बन्ध होता है । अर्थात् पुद्गल द्रव्यके स्निग्ध और रूक्षगुणमें परिणमन होनेसे एक परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ बन्ध होता है । यही उसका विभाव परिणमन है।
आगे द्रव्य स्वभाव पर्याय को कहते है
लोकमें द्रव्योंके जो जो प्रदेश स्वस्वभाव रूपसे स्थित हैं उन्हें द्रव्योंकी स्वभाव पर्याय जानो ॥ २०॥
विशेषार्थ-धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य और काल द्रव्य निष्क्रिय हैं। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य के प्रदेश समस्त लोकाकाशमें व्याप्त हैं। आकाश समस्त लोक-अलोकमें व्याप्त है। काल द्रव्यके अण लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर एक-एक स्थित हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और एक जीवके असंख्यात,असंख्यात प्रदेश हैं । आकाशके अनन्त प्रदेश है । कालका प्रत्येक अणु एकप्रदेशी है । पुद्गल द्रव्यका परमाणु भी एकप्रदेशी है । इन द्रव्योंको यह स्थिति इनकी स्वभाव द्रव्यपर्याय है,क्योंकि यह परनिरपेक्ष है।
गुण स्वभाव पर्यायोंको बतलाते हैं
द्रव्योंके अनन्त अगुरुलघु गुण जो प्रति समय हानि-वृद्धि रूप परिणमन करते हैं उसे स्वभाव गुणपर्याय जानो ॥ २१ ।।
विशेषार्थ-आगममें द्रव्योंमें अनन्त अगुरु लघु गुण माने गये हैं। वे अगुरु लघु गुणके प्रति समय. छह हानिवृद्धियाँ रूप परिणमन करते रहते हैं । यही स्वभाव गुणपर्याय है । क्योंकि यह परनिरपेक्ष है।
जीव द्रव्यकी विभाव पर्यायों को बतलाते हैं
चारों गतिके प्राणियोंके तथा विग्रह गतिवाले जीवके आत्मप्रदेशोंका परिणाम जो शरीराकार है वह जीव द्रव्यकी विभावपर्याय है ॥ २२ ॥
विशेषार्थ-परनिमित्तसे होनेवाली पर्यायको विभावपर्याय कहते हैं । संसारी जीवके आत्मप्रदेशोंका कार होता है जो उसके शरीरका आकार होता है और शरीर कर्मके निमित्तसे प्राप्त होता है। अतः
१. 'तत्र स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्याणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमानषट्स्थानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः ।'-प्रवचनसार टीका अमृतचन्द्र, गा० ९३ । २. परिमाणं मु० ।
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